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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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Faiz Ahmad Faiz's Photo'

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

1911 - 1984 | लाहौर, पाकिस्तान

सबसे प्रख्यात एवं प्रसिद्ध शायर। अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण कई साल कारावास में रहे

सबसे प्रख्यात एवं प्रसिद्ध शायर। अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण कई साल कारावास में रहे

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शेर

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कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत

चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे

मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है

कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने

हर चारागर को चारागरी से गुरेज़ था

वर्ना हमें जो दुख थे बहुत ला-दवा थे

वो रहे हैं वो आते हैं रहे होंगे

शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने

बे-दम हुए बीमार दवा क्यूँ नहीं देते

तुम अच्छे मसीहा हो शिफ़ा क्यूँ नहीं देते

जानता है कि वो आएँगे

फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल

इन में लहू जला हो हमारा कि जान दिल

महफ़िल में कुछ चराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो हैं

हर चारागर को चारागरी से गुरेज़ था

वर्ना हमें जो दुख थे बहुत ला-दवा थे

जवाँ-मर्दी उसी रिफ़अत पे पहुँची

जहाँ से बुज़दिली ने जस्त की थी

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर

वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक

इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे

सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो

''बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है''

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में

हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं

अदा-ए-हुस्न की मासूमियत को कम कर दे

गुनाहगार-ए-नज़र को हिजाब आता है

मय-ख़ाना सलामत है तो हम सुर्ख़ी-ए-मय से

तज़ईन-ए-दर-ओ-बाम-ए-हरम करते रहेंगे

आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान

भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना थे

हाँ नुक्ता-वरो लाओ लब-ओ-दिल की गवाही

हाँ नग़्मागरो साज़-ए-सदा क्यूँ नहीं देते

ख़ैर दोज़ख़ में मय मिले मिले

शैख़-साहब से जाँ तो छुटेगी

हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे

जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे

ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम

विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं

हम शैख़ लीडर मुसाहिब सहाफ़ी

जो ख़ुद नहीं करते वो हिदायत करेंगे

बहुत मिला मिला ज़िंदगी से ग़म क्या है

मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है

ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक

कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे

मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे

दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए

जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई

सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया

जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए

वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया

वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया

वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया

मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

व्याख्या

इस शे’र का मिज़ाज ग़ज़ल के पारंपरिक स्वभाव के समान है। चूँकि फ़ैज़ ने प्रगतिशील विचारों के प्रतिनिधित्व में भी उर्दू छंदशास्त्र की परंपरा का पूरा ध्यान रखा इसलिए उनकी रचनाओं में प्रतीकात्मक स्तर पर प्रगतिवादी सोच दिखाई देती है इसलिए उनकी शे’री दुनिया में और भी संभावनाएं मौजूद हैं। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ये मशहूर शे’र है। बाद-ए-नौ-बहार के मायने नई बहार की हवा है। पहले इस शे’र की व्याख्या प्रगतिशील विचार को ध्यान मे रखते हुए करते हैं। फ़ैज़ की शिकायत ये रही है कि क्रांति होने के बावजूद शोषण की चक्की में पिसने वालों की क़िस्मत नहीं बदलती। इस शे’र में अगर बाद-ए-नौबहार को क्रांति का प्रतीक मान लिया जाये तो शे’र का अर्थ ये बनता है कि गुलशन (देश, समय आदि) का कारोबार तब तक नहीं चल सकता जब तक कि क्रांति अपने सही मायने में नहीं आती। इसीलिए वो क्रांति या परिवर्तन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जब तुम प्रगट हो जाओगे तब फूलों में नई बहार की हवा ताज़गी लाएगी। और इस तरह से चमन का कारोबार चलेगा। दूसरे शब्दों में वो अपने महबूब से कहते हैं कि तुम अब भी जाओ ताकि गुलों में नई बहार की हवा रंग भरे और चमन खिल उठे।

शफ़क़ सुपुरी

हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ

दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही

नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के

वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के

इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन

देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया

तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के

उठ कर तो गए हैं तिरी बज़्म से मगर

कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं

सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं

हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं

सारी दुनिया से दूर हो जाए

जो ज़रा तेरे पास हो बैठे

सारी दुनिया से दूर हो जाए

जो ज़रा तेरे पास हो बैठे

वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ लब की बख़िया-गरी

फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं

किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं

हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं

तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं

चंग नय रंग पे थे अपने लहू के दम से

दिल ने लय बदली तो मद्धम हुआ हर साज़ का रंग

यूँ सजा चाँद कि झलका तिरे अंदाज़ का रंग

यूँ फ़ज़ा महकी कि बदला मिरे हमराज़ का रंग

अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें

रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम

वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र था

वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है

चमन पे ग़ारत-ए-गुल-चीं से जाने क्या गुज़री

क़फ़स से आज सबा बे-क़रार गुज़री है

गुल खिले हैं उन से मिले मय पी है

अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

तुम आए हो शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है

तलाश में है सहर बार बार गुज़री है

व्याख्या

इस शे’र को प्रायः टीकाकारों और आलोचकों ने प्रगतिशील विचारों की दृष्टि से देखा है। उनकी नज़र में “तुम”, “इन्क़िलाब”, “शब-ए-इंतज़ार” द्विधा, शोषण और अन्वेषण का प्रतीक है। इस दृष्टि से शे’र का विषय ये बनता है कि क्रांति करने का प्रयत्न करने वालों ने शोषक तत्वों के विरुद्ध हालांकि बहुत कोशिशें की मगर हर दौर अपने साथ नए शोषक तत्व लाता है। चूँकि फ़ैज़ ने अपनी शायरी में उर्दू शायरी की परंपरा से बग़ावत नहीं की और पारंपरिक विधानों को ही बरता है इसलिए इस शे’र को अगर प्रगतिशील सोच के दायरे से निकाल कर भी देखा जाये तो इसमें एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि तुम आए और इंतज़ार की रात गुज़री। हालांकि नियम ये है कि हर रात की सुबह होती है मगर सुबह के बार-बार आने के बावजूद इंतज़ार की रात ख़त्म नहीं होती।

शफ़क़ सुपुरी

रक़्स-ए-मय तेज़ करो साज़ की लय तेज़ करो

सू-ए-मय-ख़ाना सफ़ीरान-ए-हरम आते हैं

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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