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परेशानी का सबब

सआदत हसन मंटो

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सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यह अफ़साना एक ऐसे शख़्स की दास्तान बयान करता है जो अपने एक दोस्त के साथ घूमने जा रहा होता है। रास्ते में उसका दोस्त एक वेश्या के घर रुक जाता है। वहाँ उस वेश्या के साथ उनका झगड़ा हो जाता है। वेश्या उन सब लोगों के ख़िलाफ़़ मुक़द्दमा कर देती है। इस मुकद्दमे के चलते वह एक ऐसी परेशानी में घिर जाता है जिससे निकलने का उसे कोई रास्ता नज़र नहीं आता।

    नईम मेरे कमरे में दाख़िल हुआ और ख़ामोशी से कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उसकी तरफ़ नज़र उठा कर देखा और अख़बार की आख़िरी कापी के लिए जो मज़मून लिख रहा था उसको जारी रखने ही वाला था कि मअ’न मुझे नईम के चेहरे पर एक ग़ैरमामूली तबदीली का एहसास हुआ। मैंने चश्मा उतार कर उसकी तरफ़ फिर देखा और कहा, “क्या बात है नईम, मालूम होता है तुम्हारी तबीयत नासाज़ है।”

    नईम ने अपने ख़ुश्क लबों पर ज़बान फेरी और जवाब दिया, “क्या बताऊं, अ’जीब मुश्किल में जान फंस गई है। बैठे बिठाए एक ऐसी बात हुई है कि मैं किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहा।”

    मैंने काग़ज़ की जितनी पर्चियां लिखी थीं जमा करके एक तरफ़ रख दीं और ज़्यादा दिलचस्पी लेकर उससे पूछा, “कोई हादिसा पेश गया... फ़िल्म कंपनी में किसी एक्ट्रेस से।”

    नईम ने फ़ौरन ही कहा, “नहीं भाई, एक्ट्रेस-वेक्ट्रेस से कुछ भी नहीं हुआ। एक और ही मुसीबत में जान फंस गई है। तुम्हें फ़ुर्सत हो तो मैं सारी दास्तान सुनाऊं।”

    नईम मेरा दोस्त है। जब से वो बम्बई से आया है उससे मेरी दोस्ती चली रही है। वो यूं कि बम्बई आते ही उसने मेरे अख़बार में काम किया और ख़ुद को बहुत सी अहलियतों का मालिक साबित किया। फिर आहिस्ता आहिस्ता जब मुझे उसके आ’ला ख़ानदान का पता चला और इसी क़िस्म की दूसरी वाक़फ़ियतें निकलती आईं तो मेरे दिल में उसकी इज़्ज़त और भी ज़्यादा हो गई, चुनांचे छः महीने के मुख़्तसर अ’र्से ही में वो मेरा बेतकल्लुफ़ दोस्त बन गया।

    नईम ने मेरे अख़बार को दिलचस्प बनाने के लिए मुझसे ज़्यादा कोशिशें कीं। हर हफ़्ते जब उसने एक नई कहानी लिखना शुरू की और मैंने उसकी तैयार चार कहानियां पढ़ीं तो मुझे इस बात का एहसास हुआ कि अख़बार में अगर नईम पड़ा रहा तो उसकी तमाम ज़कावतें तबाह हो जाएंगी, चुनांचे मैंने मौक़ा मिलते ही एक फ़िल्म कंपनी में उसकी सिफ़ारिश की और वो मुकालमा निगार की हैसियत से फ़ौरन ही वहां मुलाज़िम हो गया।

    फ़िल्म कंपनी की मुलाज़मत के दौरान में नईम ने वहां के सेठों और डायरेक्टरों पर कैसा असर डाला, इसके मुतअ’ल्लिक़ मुझे कुछ इ’ल्म नहीं। मैं बेहद मसरूफ़ आदमी हूँ, लेकिन नईम से एक दो बार मुझे इतना ज़रूर मालूम हुआ था कि वहां उसका काम पसंद किया गया है। अब एका एकी जाने क्या हादिसा पेश आया था जो उसका रंग यूं हल्दी की तरह ज़र्द पड़ गया था।

    नईम बेहद शरीफ़ आदमी है। उससे किसी नामा’क़ूल हरकत की तवक़्क़ो ही नहीं हो सकती थी, मैं सख़्त मुतहय्यर हुआ कि ऐसी कौन सी उफ़्ताद पड़ी जो नईम किसी को अपना मुँह दिखाने के क़ाबिल रहा। मैंने उससे इजाज़त लेकर जल्दी जल्दी आख़िरी कापी के लिए मज़मून का बक़ाया हिस्सा मुकम्मल किया और तमाम पर्चियां कातिब को देकर उसके पास बैठ गया।

    “भई माफ़ करना, मैं फ़ौरन ही तुम्हारी दास्तान सुन सका, लेकिन मैं पूछता हूँ, ये दास्तान आख़िर बनी कैसे? तुम, तुम.... ख़ैर छोड़ो इस क़िस्से को, तुम मुझे सारा वाक़िया सुनाओ।”

    नईम ने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाया और कहा, “अब मैं तुम्हें क्या बताऊं, जो कुछ हुआ, मेरी अपनी बेवक़ूफ़ी की बदौलत हुआ। हमारी फ़िल्म कंपनी में एक ऐक्टर है, आशिक़ हुसैन। अव़्वल दर्जे का चुग़द है। चूँकि दूसरों की तरह मैं उसे सताता नहीं हूँ इसलिए वो मुझ पर बुरी तरह फ़रेफ़्ता है, ये फ़रेफ़्ता मैंने इसलिए कहा है कि वो मुझसे इसी तरह बातें करता है जिस तरह ख़ूबसूरत औरतों से की जाती हैं।”

    मैं हंस पड़ा, “पर तुम इतने ख़ूबसूरत तो नहीं हो।”

    नईम के पीले चेहरे पर भी हंसी की लाल लाल धारियां फैल गई, “कुछ समझ मैं नहीं आता कि वो क्या है। दरअसल वो अपने इख़लास और अपनी बेलौस मोहब्बत का इज़हार करना चाहता है और चूँकि उसे ऐसा करने का तरीक़ा नहीं आता इसलिए उसका प्यार वही शक्ल इख़्तियार कर लेता है जो उसको ग़ालिबन अपनी बीवी से होगा। हाँ तो ये आशिक़ हुसैन साहब जो अव़्वल दर्जे के रक्कास हैं और रक़्स के सिवा और कुछ भी नहीं जानते, परसों शूटिंग के बाद मुझे मिले। सीट पर मैंने उनके मकालमे दुरुस्त करने में काफ़ी मेहनत की थी।

    इस का हक़ अदा करने के लिए उन्होंने फ़ौरन ही कुछ सोचा और कहा, “नईम साहब, मैं आप से कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ।” मैंने कहा, “फ़रमाईए।” उन्होंने फिर कुछ सोचा और कहा, “दिन भर काम करने के बाद में थक गया हूँ, आप भी ज़रूर थक गए होंगे। चलिए, कहीं घूम आएं...” अब मैं यहां अपनी एक कमज़ोरी बता दूं। मौसम अगर ख़ुशगवार हो तो मैं उमूमन बहक जाता हूँ।

    शाम का झुटपुटा था। हल्की हल्की हवा चल रही थी और फ़िज़ा में एक अ’जीब क़िस्म की उदासी घुली हुई थी। जवान कुंवारे आदमियों के दिल में ऐसी उदासी ज़रूर मौजूद होती है जो फैल कर ऐसे मौक़ों पर बहुत वुसअत इख़्तियार कर लिया करती है। मेरे बदन पर एक कपकपी सी तारी हो गई जब मैंने जूहू के समुंद्री किनारे का तसव्वुर किया, जहां शाम को नम-आलूद हवाएं यूं चलती हैं जैसे भारी भारी रेशमी साड़ियां पहन कर औरतें चलती हैं... मैं फ़ौरन तैयार हो गया।

    “चलिए, मगर कहाँ जाईएगा।” अब आशिक़ हुसैन ने फिर सोचा और कहा, “कहीं भी चले चलेंगे... यहां से बाहर तो निकलें।” हम दोनों गेट से बाहर निकले और मोड़ पर बस का इंतिज़ार करने लगे।

    यहां तक कह कर नईम रुक गया। उसके चेहरे की ज़र्दी अब दूर हो रही थी। मैंने उसके पैकेट से एक सिगरेट निकाल कर सुलगाया और कहा, “तुम दोनों गेट से बाहर निकल कर बस का इंतिज़ार करने लगे।”

    नईम ने सर हिलाया, “और शामत-ए-आ’माल उधर से आशिक़ हुसैन के एक मारवाड़ी दोस्त का गुज़र हुआ। वो मोटर में जा रहा था कि अचानक आशिक़ हुसैन की नज़र उस पर पड़ी। फ़ौरन ही उसने मारवाड़ी ज़बान में अपने दोस्त को ठहरने के लिए कहा। मोटर रुकी, आशिक़ हुसैन ने उससे मारवाड़ी ज़बान में चंद बातें कीं फिर दौड़ कर मेरे पास आया और कहने लगा चलिए, काम बन गया। मोटर मिल गई इसी में चलते हैं।” मैं चल पड़ा।

    मोटर में दाख़िल होने से पहले आशिक़ ने अपने मारवाड़ी दोस्त से जो शक्ल-ओ-सूरत के ए’तबार से ड्राईवर मालूम होता था तआ’रुफ़ कराया और हस्ब-ए-मा’मूल मुबालग़े से काम लेते हुए कहा, “ये मारवाड़ के बहुत बड़े सेठ हैं। यहां एक कारोबार के सिलसिले में आए हैं। मेरे बहुत मेहरबान दोस्त हैं।” और मेरे मुतअ’ल्लिक़ अपने दोस्त से कहा, “ये हिंदुस्तान के बहुत बड़े स्टोरी राइटर हैं।” हिंदुस्तान के बहुत बड़े स्टोरी राइटर और मारवाड़ के बहुत बड़े सेठ ने हाथ मिलाए। दोनों अपनी अपनी जगह रस्मी तौर पर ख़ुश हुए और मोटर चली... ये सुन कर मैं मुस्कुराया।

    “नईम, उस मारवाड़ी सेठ के मुतअ’ल्लिक़ तुम्हारी राय बहुत ख़राब मालूम होती है। क्या आगे चल कर ये विलेन का पार्ट अदा तो नहीं करेगा?”

    “तुम पहले पूरी दास्तान सुन लो, फिर सोचना कि विलेन कौन है और हीरो कौन? लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस कहानी की हीरोइन ज़ुहरा है... ज़ुहरा जिसको मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली मर्तबा कल, दादर की एक फ़ौजदारी अदालत में देखा है... एक मुजरिम की हैसियत में।”

    ये कहते हुए नईम के कान की लवें शर्म के बाइ’स सुर्ख़ हो गईं। दास्तान सुनने के दौरान में पहली मर्तबा ज़ुहरा के अचानक ज़िक्र से मुझे सख़्त तअ’ज्जुब हुआ, मैं ने कहा, “नईम, ये तो बिल्कुल एलेग्जेंडर पो का अफ़साना मालूम होता है। ये ज़ुहरा बिल्कुल पो के अफ़सानों के ग़ैर मुतवक़्क़े अंजाम की तरह इस दास्तान में आई है। ये औरत कौन है?”

    “मैं क़तअ’न नहीं जानता, या’नी अगर मुझे उस औरत के मुतअ’ल्लिक़ कुछ इ’ल्म होतो मुझ पर ला’नत। ख़ुदा मालूम कौन है, पर अब मैं इतना जानता हूँ कि उसने हम लोगों पर फ़ौजदारी मुक़द्दमा दायर कर रखा है, जुर्म डाका और चोरी है।”

    मैंने तअ’ज्जुब से पूछा, “डाका और चोरी?”

    नईम के लहजे ने ऐसी मतानत इख़्तियार कर ली जिसमें रुहानी अज़ियत की झलक साफ़ दिखाई देती थी। कहने लगा, “हाँ, डाका और चोरी। मुझे दफ़आ’त अच्छी तरह याद नहीं मगर इनका मतलब यही है कि हमने मुदाख़िलत-ए-बेजा की, ज़ुहरा के घर पर डाका डाला और उसकी चंद क़ीमती अश्या चुरा कर ले गए, लेकिन ये तो दास्तान का अंजाम है। पहले के वाक़ियात तुम्हें सुना लूं फिर इस तरफ़ आता हूँ... मैं क्या कह रहा था?”

    मैंने जवाब दिया, “ये कि तुम उस मारवाड़ी की मोटर में बैठ गए।”

    “हाँ मैं आशिक़ हुसैन के कहने पर उस मनहूस मारवाड़ी की मोटर में बैठ गया। मोटर वो ख़ुद चला रहा था। उसके साथ ही अगली सीट पर एक और आदमी बैठा था जो उससे कम मनहूस नहीं था। आशिक़ हुसैन ने शायद उसके मुतअ’ल्लिक़ कहा था कि वो मोटरें बनाने का काम करता है। ख़ैर मोटर मुख़्तलिफ़ बाज़ारों से होती हुई दादर की तरफ़ जा निकली।

    ज़ाहिर था कि हम जूहू जाऐंगे, चुनांचे मैं बहुत ख़ुश था। जूहू की गीली गीली रेत से मुझे बेहद प्यार है कभी कभी उधर जा कर मैं गीली रेत पर ज़रूर लेटा करता हूँ और देर तक खुले आसमान की तरफ़ देखा करता हूँ जो उतना ही पुरअसरार और नाक़ाबिल-ए-रसा दिखाई देता है जितना कि एक अजनबी औरत का तसव्वुर। सामने रात की सुरमई रोशनी में समुंदर करवटें लेता है, ऊपर गदले आसमान पर तारे यूं चमकते हैं जैसे अनहोनी बातें किसी जवान आदमी के दिल में टिमटिमा रही हैं। एक अजीब कैफ़ियत होती है।

    दूर, उस पार जहां आसमान और समुंदर कोई वाज़ेह ख़त बनाए बग़ैर आपस में घुल मिल जाते हैं, एक ऐसी धुंदली रोशनी नज़र आया करती है जो ख़ूबसूरत शे’रों की तरह मस्नूई होती है। मैं जूहू की सैर के ख़याल में मगन था कि आशिक़ हुसैन ने मोटर को दादर ही में एक जगह ठहरा लिया और मुझ से कहा, “चलिए, कुछ पी लें।”

    जैसा कि तुम्हें मालूम है, बियर मुझे प्यारी है। आशिक़ हुसैन को ख़ुदा मालूम कहाँ से इस बात का पता चला था कि मैं पिया करता हूँ। ख़ैर, हम चारों यार बार में दाख़िल हुए। एक बोतल बियर की मैं ने पी और एक आशिक़ हुसैन ने। मारवाड़ी सेठ और मोटरें बनाने वाले ने कुछ पिया। हम जल्दी ही फ़ारिग़ हो गए। फिर मोटर में बैठे और जूहू का रुख़ किया मगर फ़ौरन ही आशिक़ हुसैन को एक काम याद गया।

    “ओह मुझे तो अपनी शागिर्द ज़ुहरा के हाँ जाना है। आज उससे मिलने का मैंने वा’दा किया था... नईम साहब अगर आपको ए’तराज़ हो तो पाँच मिनट लगेंगे। उसका मकान बिल्कुल क़रीब है।”

    मुझे क्या ए’तराज़ हो सकता था, चुनांचे उसने मोटर एक गली में ठहरा ली और अकेला सामने वाले मकान की तरफ़ बढ़ा।

    मैंने पूछा, “ये गली किस तरफ़ है।”

    नईम ने जवाब दिया, “दादर ही में है... उधर जहां पारसियों के बेशुमार मकान हैं, ग़ालिबन उस मुहल्ले को पारसी कॉलोनी कहते हैं।”

    “हाँ, तो आशिक़ हुसैन मोटर से निकल कर सामने मकान की तरफ़ बढ़ा। एक छोटा सा दो मंज़िला मकान था। बगीचा तय करके आशिक़ ने दरवाज़े पर दस्तक दी। जब किसी ने दरवाज़ा खोला तो आशिक़ ने दूसरी बार ज़ोर से दस्तक दी। अंदर से किसी औरत की आवाज़ आई, “कौन है।” आशिक़ हुसैन ने बुलंद आवाज़ में जवाब दिया, “आशिक़।”

    अंदर से ख़श्मआलूद आवाज़ आई, “आशिक़ की...” आशिक़ हुसैन ने ये गाली सुन कर हमारी तरफ़ देखा और ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया और ये कहना शुरू किया, “दरवाज़ा खोलो... दरवाज़ा खोलो।”

    ये सुन कर मैंने कहा, “उस औरत ने शायद आशिक़ का ग़लत मतलब समझा, वर्ना जैसा कि तुम अभी कह चुके हो वो आशिक़ की शागिर्द थी।”

    “जाने बला, क्या थी और क्या है। हो सकता है कि आशिक़ हुसैन ने झूट ही बोला हो और बियर की एक बोतल पीने के बाद ज़ुहरा का ख़याल उसके दिमाग़ में आगया हो। किसी ने उससे कभी कहा होगा कि फ़ुलां नंबर के फ़्लैट में एक औरत ज़ुहरा रहती है, लेकिन इससे क्या बहस है?

    आशिक़ हुसैन ने ऊधम मचाना शुरू कर दी। अंदर से गालियां आती रहीं और पेशतर इसके कि मैं उसे मना कर सकता, तीन चार धक्के मार उसने दरवाज़ा तोड़ा और ज़बरदस्ती अंदर दाख़िल हो गया। जब ये शोर हुआ तो आस पास के रहने वाले पारसी इकट्ठे हो गए। मैं बेहद परेशान हुआ, चुनांचे इसी परेशानी में मोटर से बाहर निकला और आशिक़ को बाहर लाने की ख़ातिर उस मकान में दाख़िल हो गया।

    मेरे पीछे पीछे आशिक़ के दोनों साथी भी चले आए। मैंने उस फ़्लैट के तीनों कमरे देखे मगर आशिक़ नज़र आया उसकी शागिर्द ज़ुहरा। ख़ुदा मालूम कहाँ ग़ायब हो गए थे। घर के परली तरफ़ दूसरा रास्ता था, मुम्किन है वो उधर से बाहर निकल गए हों। मैं चंद मिनट इन तीन कमरों में रहा। जब कोई सुराग़ मिला तो बाहर निकल कर मोटर में बैठ गया। वो पारसी जो गली में जमा हो गए थे, घूर घूर कर मेरी तरफ़ देखने लगे।

    मैं और ज़्यादा परेशान हो गया। बियर का सारा नशा जो दिमाग़ में था उतर कर मेरी टांगों में चला आया। मेरे जी मैं आई कि आशिक़ उसके साथियों और उनकी मोटर को वहीं छोड़कर भाग जाऊं मगर अ’जब मुश्किल में मेरी जान फंस गई थी। अगर भागने की कोशिश करता तो यक़ीनन वो पारसी जो मुझे चिड़ियाघर का बंदर समझ कर घूर रहे थे, पकड़ लेते... दस बारह मिनट इसी शश-ओ-पंज में गुज़रे। इसके बाद आशिक़ और उसके दोनों दोस्त मकान में से बाहर निकले और मोटर में बैठ गए।

    मैंने आशिक़ से कोई बात पूछी। मोटर चली और जब दादर का हल्क़ा आया तो मैंने उससे कहा, “मुझे यहीं उतार दो, मैं बस में घर चला जाऊंगा।” आशिक़ के दिमाग़ से जूहू की सैर का ख़याल निकल गया था, उसने अपने मारवाड़ी दोस्त से मोटर रोकने के लिए कहा, चुनांचे मैं उनसे रुख़सत लेकर घर चला आया और इस वाक़िया को भूल गया।

    नईम ने एक सिगरेट और सुलगाया और कुछ देर के लिए ख़ामोश हो गया। मैंने पूछा, “इसके बाद क्या हुआ?”

    “मुझे गिरफ़्तार करलिया गया।” नईम ने बड़ी तल्ख़ी के साथ कहा। उस बेवक़ूफ़ के बच्चे आशिक़ हुसैन से जब पुलिस वालों ने पूछा कि तुम्हारे साथ और कौन था तो उसने अपने मारवाड़ी दोस्त, उस मोटर बनाने वाले का और मेरा नाम ले दिया... हम तीनों एक घंटे के अंदर अंदर गिरफ़्तार कर लिए गए।”

    मैंने पूछा, “ये कब की बात है? तुम ने मुझे इत्तिला क्यों दी।”

    नईम ने जवाब दिया, “कल दो ढाई बजे के क़रीब हमारी गिरफ्तारियां अ’मल में आईं। मैंने तुम्हें टेलीफ़ोन पर ज़रूर मुत्तलअ’ किया होता अगर मेरे हवास बजा होते। बख़ुदा मैं सख़्त परेशान था। पुलिस इंस्पेक्टर टैक्सी में हम सब को थाने में ले गया। वहां बयानात क़लमबंद हुए तो मुझे पता चला कि आशिक़ हुसैन के वो मारवाड़ी दोस्त जो किसी कारोबार के सिलसिले में यहां आए थे ज़ुहरा का पंखा उठा कर अपने साथ ले आए थे। बिजली का ये पंखा पुलिस ने उनसे हासिल कर लिया था।

    ये सुन कर मैंने तशवीशनाक लहजे में कहा, “इससे तो चोरी साफ़ साबित होती है।”

    “चोरी साबित होती है जभी तो मैं इस क़दर परेशान हूँ और सच पूछो तो अगर ये साबित भी होती तो मेरी परेशानी उसी क़दर रहती। थाने और अदालत में जाना बेहद शर्मनाक है, पर अब क्या किया जाये, जो होना है हो चुका है। इस ख़िफ़्फ़त से छुटकारा नहीं मिल सकता जो मुझे उठाना पड़ेगी और उठाना पड़ रही है। मैं बिल्कुल बेगुनाह हूँ या’नी ज़ाहिर है कि ज़ुहरा को मैं बिल्कुल नहीं जानता, उस के मकान पर में अगर गया तो महज़ आशिक़ हुसैन की वजह से, उस चुग़द के कहने पर जो एक बोतल बियर भी हज़म नहीं कर सकता।

    नईम के चेहरे पर नफ़रत और ग़ुस्से के मिले जुले जज़्बात देख कर मुझे बे इख़्तियार हंसी गई। “भई, बहुत बुरे फंसे।”

    नईम ने उसी अंदाज़ में कहा, “हंसी में फंसी इसी को कहते हैं... कल, अपनी ज़िंदगी में पहली मर्तबा मैंने अदालत का मुँह देखा और ज़ुहरा भी पहली मर्तबा मुझे नज़र आई।”

    मैंने फ़ौरन ही पूछा, “कैसी है?”

    नईम ने बेपर्वाई से जवाब दिया, “बुरी नहीं, या’नी शक्ल सूरत के ए’तबार से ख़ासी है... बैज़वी चेहरा है जिस पर कीलों और मुहासों के दाग़ नज़र आते हैं। लंबे लंबे काले बाल हैं, पेशानी तंग है। जवान है। ऐसा मालूम होता है कि हाल ही में उसने ये धंदा शुरू किया है।”

    मैंने बग़ैर किसी मतलब के यूं ही पूछा, “कैसा धंदा?”

    नईम शर्मा सा गया। “अरे भई, वही जो औरतें करती हैं। ज़ुहरा के चेहरे पर उसकी छाप दूर से नज़र सकती है, मुझे उस औरत पर इतना ग़ुस्सा कभी आता मगर जब मजिस्ट्रेट ने मेरी तरफ़ इशारा करके पूछा, “तुम इसको पहचानती हो।” तो ज़ुहरा ने मेरी तरफ़ अपनी बड़ी बड़ी धुली हुई आँखों से देख कर कहा, “हाँ साहब, पहचानती हूँ, इसी ने मेरा चांदी का टी सेट उठाया था।” जब उस ने ये झूट बोला तो ख़ुदा की क़सम जी में आई मलऊ’ना के हलक़ में कटहरे का एक डंडा निकाल कर ठूंस दूं। “इतना बड़ा झूट!!”

    इस पर मैंने कहा, “भई झूट तो बोलेगी... इसके बग़ैर काम कैसे चलेगा उसे अपना केस मज़बूत भी तो बनाना है। अब तो तुम्हें क़ह्र-ए-दरवेश, बरजान-ए-दरवेश सब कुछ सुनना पड़ेगा।”

    “ठीक है।” नईम ने बड़ी परेशानी के साथ कहा, “जो कुछ होगा उसे हर हालत में सहना ही पड़ेगा मगर, मगर मैं क्या बताऊं, मैं किस क़दर परेशान हो गया हूँ, कुछ समझ में नहीं आता। अगर किसी मर्द ने मुझ पर ऐसा मुक़द्दमा दायर किया होता तो मुझे इतनी परेशानी होती, मगर ज़रा ग़ौर तो करो, वो औरत है... और मैं औरतों की ता’ज़ीम करता हूँ।”

    मैंने पूछा, “क्यों?”

    नईम ने बड़ी सादगी से जवाब दिया, “इसलिए कि मैं औरतों को जानता ही नहीं। किसी औरत से मिलने और उससे खुल कर बातचीत करने का मुझे कभी मौक़ा ही नहीं मिला। अब ज़िंदगी में पहली मर्तबा औरत आई है तो मुद्दई बन कर।”

    मैंने हंसना शुरू कर दिया। नईम ने इस पर बिगड़ कर कहा, “तुम हंसते हो मगर यहां मेरी जान पर बनी है। दो दिन से मैं कंपनी नहीं जा रहा, वहां ये बात ज़रूर पहुंच चुकी होगी। सेठ साहब के सामने मैं क्या मुँह ले के जाऊंगा। उन्होंने अगर कुछ पूछा तो मैं क्या जवाब दूंगा?”

    मैंने कहा, “जो असल बात है उनको बता देना।”

    “वो तो मैं बता ही दूंगा मगर ख़ुदा के लिए सोचो तो सही कि मेरी पोज़ीशन किया है? मैं सेठ साहब की बेहद इज़्ज़त करता हूँ इसलिए कि वो मेरे आक़ा हैं, अगर उन्होंने मुझे बदकिर्दार समझ कर बरतरफ़ कर दिया तो उम्र भर के लिए मैं दाग़दार हो जाऊंगा। मुलाज़मत खोने का मुझे इतना अफ़सोस नहीं होगा मगर यहां सवाल इज़्ज़त-ओ-नामूस का है। वो ज़रूर बद-गुमान हो जाऐंगे। मैं उन की तबीयत से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ, मेरी सच्ची बातों को भी वो झूटा ही समझेंगे। फ़िल्म कंपनी में हर शख़्स झूट बोलता है। वो ख़ुद भी हमेशा झूट बोलते हैं... अब मैं क्या करूं... कुछ समझ में नहीं आता।”

    मैंने हर मुम्किन तरीक़े से नईम की अख़लाक़ी जुरअत बढ़ाने की कोशिश की मगर नाकाम रहा। वो बेहद डरपोक है। ख़ासकर औरतों के मुआ’मले में तो उसकी बुज़दिली बहुत ही ज़्यादा है। दरअसल मुआ’मला भी संगीन था, अगर बर्क़ी पंखा बरामद होता तो केस बिल्कुल मामूली रह जाता। मगर पुलिस उस मारवाड़ी से पंखा हासिल करचुकी थी इसलिए ज़ाहिर है कि ज़ुहरा एक हद तक सच्ची थी।

    नईम ज़्यादा देर तक मेरे पास ठहरा और चला गया। दूसरे रोज़ शाम को वो फिर आया। उसकी परेशानी और भी ज़्यादा बढ़ी हुई थी। आते ही कहने लगा, “भाई, एक मुसीबत में तो जान फंसी थी, अब एक और आफ़त गले पड़ गई है।”

    मैंने तशवीश के साथ कहा, “क्या हुआ! क्या कोई और केस खड़ा हो गया।”

    “नहीं, केस वही है, मगर एक ऐसी बात हुई है जो मेरे वहम-ओ-गुमान में भी थी।” नईम ने कुर्सी पर बैठ कर इज़तराब के साथ टांग हिलाना शुरू की। आज सुबह सेठ साहिब ने मुझे बुलाने के लिए मोटर भेजी। मुझे जाना ही पड़ा, हालाँकि मैं इरादा कर चुका था कि कभी नहीं जाऊंगा। बख़ुदा फ़िल्म कंपनी में दाख़िल होते वक़्त मेरी हालत वही थी जो हस्सास मुलज़िमों की होती है। शर्म के मारे मेरा हलक़ सूख रहा था। सर भारी हो गया था। नीची नज़रें किए जब मैं सेठ साहब के कमरे में दाख़िल हुआ तो वो उठ खड़े हुए। बड़े तपाक के साथ उन्होंने पहली मर्तबा मेरे साथ हैंड शेक किया और हंस कर कहने लगे, “मुंशी साहब, आपने कमाल कर दिया। आप तो छुपे रुस्तम निकले। बैठिए, तशरीफ़ रखिए।”

    मैं नदामत में ग़र्क़ कुर्सी पर बैठ गया, वो भी बैठ गए। फिर उन्होंने ऐसी बातें शुरू कीं कि मेरे औसान ख़ता हो गए। कहने लगे, “आप घबराते क्यों हैं, सब ठीक हो जाएगा आप बताईए कि ये ज़ुहरा है कैसी? कुछ अच्छी है? भई आपने तो कमाल कर दिया। मैं सुनता हूँ कि आपने पी कर वो धमाल मचाई कि पारसी कॉलोनी के सब आदमी इकट्ठे हो गए। किसी ने मुझसे कहा था कि आप ज़ुहरा की साड़ी उतार कर ले गए। पहले भी तो आप उसके हाँ आते जाते होंगे, फिर हरामज़ादी ने पुलिस में रिपोर्ट क्यों लिखवाई, पर क्या पता है आप ने बहुत ज़्यादा शरारतें की हों...”

    ऐसी ही बेशुमार बातें उन्होंने मुझसे कीं। मैं ख़ामोश रहा, इसके बाद उन्होंने चाय मंगवाई। एक प्याला मेरे लिए बनाया और फिर वही गुफ़्तगू शुरू कर दी, “चांदी का टी-सेट जो आप उठा कर ले गए थे, मुझे अगर आप प्रेजेंट कर दें तो मैं अभी आपको अपने वकील के पास ले चलता हूँ, ऐसी अच्छी वकालत करेगा कि ज़ुहरा की तबीयत साफ़ हो जाएगा। मैं सुनता हूँ, ज़ुहरा शक्ल सूरत की अच्छी है, तो भई इस मुक़द्दमे के बाद उसे ले आओ अपनी फ़िल्म में, उसे कोई छोटा साल रोल दे देंगे। और हाँ, ये आपने अच्छा किया कि उसी की शराब पी और उसी की चीज़ें उड़ा कर ले गए! पर आप एक दर्जन आदमी अपने साथ क्यों ले गए थे? बेचारी इतने आदमी देख कर घबरा गई होगी।”

    बात बात पर वो हंसते थे जैसे गुफ़्तगु के लिए उन्हें एक निहायत ही दिलचस्प मौज़ू मिल गया है। तअ’ज्जुब है कि इससे पहले उन्होंने कभी मेरे सलाम का जवाब भी नहीं दिया था।”

    मैंने कहा, “तो क्या हुआ, तुम्हें ख़ुश होना चाहिए कि वो तुम पर नाराज़ हुए।”

    नईम बिगड़ कर कहने लगा, “ये भी तुमने ख़ूब कहा कि मुझे ख़ुश होना चाहिए। वो मुझे मुजरिम समझ रहे थे जो कि मैं नहीं हूं... मैं क्या कह सकता था। ख़ामोश रहा। थोड़ी देर के बाद उन्होंने ख़ज़ानची को बुलाया और मुझे सौ रुपये एडवांस दिलवाए, हालाँकि दो महीने से किसी मुलाज़िम को तनख़्वाह नहीं मिल रही।

    मैंने कहा, “तो क्या बुरा हुआ?”

    “अरे भई, तुम सारी बात तो सुन लो।” नईम खिज गया। “सौ रुपये दिलवा कर उन्होंने कहा, “ये आप अपने पास रखिए, आपको मुक़द्दमे के लिए ज़रूरत होगी। वकील का बंदोबस्त मैं अभी किए देता हूँ।”

    टेलीफ़ोन पर उन्होंने फ़ौरन ही वकील से बात की। फिर मुझे अपनी मोटर में बिठा कर उसके पास ले गए। सारी बातें उसको समझाईं और कहा, “देखिए, इस मुक़द्दमे में जान लड़ा दीजिएगा... बात बिल्कुल मामूली है, इसलिए कि मुंशी साहब से ज़ुहरा के तअ’ल्लुक़ात बहुत पुराने हैं।” मैं क्या कहता, वहां भी ख़ामोश रहा।

    मैंने हंस कर नईम से कहा, “अब भी ख़ामोश रहो। तुम्हारा क्या बिगड़ गया है?”

    नईम उठ खड़ा हुआ और इज़तराब के साथ टहलने लगा, “अभी कुछ बिगड़ा ही नहीं। अदालत में मुझे बयान देना पड़ेगा कि ज़ुहरा मेरी दाश्ता है और मैं उसे एक मुद्दत से जानता हूँ, और... और सेठ साहब ने आज शाम मुझे मदऊ किया है। कहते थे ग्रीन चलेंगे, वहां कुछ शग़ल रहेगा... मेरी जान अ’जब मुसीबत में फंस गई है, समझ में नहीं आता क्या हो रहा है?”

    स्रोत:

    دھواں

      • प्रकाशन वर्ष: 1941

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