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तरक़्क़ी पसंद

सआदत हसन मंटो

तरक़्क़ी पसंद

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MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    तंज़-ओ-मिज़ाह के अंदाज़ में लिखी गई यह कहानी तरक्क़ी-पसंद अफ़साना-निगारों पर भी चोट करता है। जोगिंदर सिंह एक तरक्क़ी-पसंद कहानी-कार है जिसके यहाँ हरेंद्र सिंह आकर डेरा डाल देता है और निरंतर अपनी कहानियाँ सुना कर बोर करता रहता है। एक दिन अचानक जोगिंदर सिंह को एहसास होता है कि वो अपनी बीवी की हक़-तल्फ़ी कर रहा है। इसी ख़्याल से वो हरेंद्र से बाहर जाने का बहाना करके बीवी से रात बारह बजे आने का वादा करता है। लेकिन जब रात में जोगिंदर अपने घर के दरवाज़े पर दस्तक देता है तो उसकी बीवी के बजाय हरेंद्र दरवाज़ा खोलता है और कहता है जल्दी आ गए, आओ, अभी एक कहानी मुकम्मल की है, इसे सुनो।

    जोगिंदर सिंह के अफ़साने जब मक़बूल होना शुरू हुए तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाए और उनकी दा’वत करे। उसका ख़याल था कि यूं उस की शोहरत और मक़बूलियत और भी ज़्यादा हो जाएगी।

    जोगिंदर सिंह बड़ा ख़ुशफ़हम इंसान था। मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाकर और उनकी ख़ातिर तवाज़ो करने के बाद जब वो अपनी बीवी अमृत कौर के पास बैठता तो कुछ देर के लिए बिल्कुल भूल जाता कि उसका काम डाकखाना में चिट्ठियों की देख भाल करना है। अपनी तीन गज़ी पटियाला फ़ैशन की रंगी हुई पगड़ी उतार कर जब वो एक तरफ़ रख देता तो उसे ऐसा महसूस होता कि उसके लंबे लंबे काले गेसूओं के नीचे जो छोटा सा सर छुपा हुआ है उसमें तरक़्क़ी पसंद अदब कूट कूट कर भरा है।

    इस एहसास से उसके दिमाग़ में एक अ’जीब क़िस्म की अहमियत पैदा हो जाती है और वो ये समझता कि दुनिया में जिस क़दर अफ़साना निगार और नॉवेल नवीस मौजूद हैं सबके सब उसके साथ एक निहायत ही लतीफ़ रिश्ते के ज़रिये से मुंसलिक हैं।

    अमृत कौर की समझ में ये बात नहीं आती थी कि उसका ख़ाविंद लोगों को मदऊ करने पर उससे हर बार ये क्यों कहा करता है, “अमृत, ये जो आज चाय पर आरहे हैं हिंदुस्तान के बहुत बड़े शायर हैं समझीं, बहुत बड़े शायर। देखो उनकी ख़ातिर तवाज़ो में कोई कसर रहे।”

    आने वाला कभी हिंदुस्तान का बहुत बड़ा शायर होता था या बहुत बड़ा अफ़साना निगार। इससे कम पाए का कोई आदमी वो कभी बुलाता ही नहीं था और फिर दा’वत में ऊंचे ऊंचे सुरों में जो बातें होती थीं उनका मतलब वो आज तक समझ सकी थी। उन गुफ़्तुगुओं में तरक़्क़ी पसंदी का ज़िक्र आ’म होता था। उस तरक़्क़ी पसंदी का मतलब भी अमृत कौर को मालूम नहीं होता था।

    एक दफ़ा जब जोगिंदर सिंह एक बहुत बड़े अफ़साना निगार को चाय पिलाकर फ़ारिग़ हुआ और अंदर रसोई में आकर बैठा तो अमृत कौर ने पूछा, “ये मुई तरक़्क़ी पसंदी क्या है?”

    जोगिंदर सिंह ने पगड़ी समेत अपने सर को एक ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश दी और कहा, “तरक़्क़ी पसंदी... इसका मतलब तुम फ़ौरन ही नहीं समझ सकोगी। तरक़्क़ी पसंद उसको कहते हैं जो तरक़्क़ी पसंद करे। ये लफ़्ज़ फ़ारसी का है। अंग्रेज़ी में तरक़्क़ी पसंद को रेडिकल कहते हैं। वो अफ़साना निगार, या’नी कहानियां लिखने वाले, जो अफ़साना निगारी में तरक़्क़ी चाहते हों उनको तरक़्क़ी पसंद अफ़साना निगार कहते हैं। इस वक़्त हिंदुस्तान में सिर्फ़ तीन-चार तरक़्क़ी पसंद अफ़साना निगार हैं जिनमें मेरा नाम भी शामिल है।”

    जोगिंदर सिंह आ’दतन अंग्रेज़ी लफ़्ज़ों और जुमलों के ज़रिये से अपने ख़यालात का इज़हार किया करता था। उसकी ये आ’दत पक कर अब तबीयत बन गई थी। चुनांचे अब वो बिला-तकल्लुफ़ एक ऐसी अंग्रेज़ी ज़बान में सोचता था जो चंद मशहूर अंग्रेज़ी नॉवेल नवीसों के अच्छे अच्छे चुस्त फ़िक़्रों पर मुश्तमिल थी।

    आम गुफ़्तुगू में वो पच्चास फीसदी अंग्रेज़ी लफ़्ज़ और अंग्रेज़ी किताबों से चुने हुए फ़िक़रे इस्तिमाल करता था। अफ़लातून को वो हमेशा प्लेटो कहता था। इसी तरह अरस्तू को अरस्टोटल। डाक्टर सैगमंड फ्रायड, शोपनहार और नित्शे का ज़िक्र वो अपनी हर मा’र्के की गुफ़्तुगू में किया करता था। आम बातचीत में वो इन फ़ल्सफ़ियों का नाम नहीं लेता था और बीवी से गुफ़्तुगू करते वक़्त वो इस बात का ख़ासतौर पर ख़याल रखता था कि अंग्रेज़ी लफ़्ज़ और ये फ़ल्सफ़ी आने पाएं।

    जोगिंदर सिंह से जब उसकी बीवी ने तरक़्क़ी पसंदी का मतलब समझा तो उसे बहुत मायूसी हुई क्योंकि उसका ख़याल था कि तरक़्क़ी पसंदी कोई बहुत बड़ी चीज़ होगी जिस पर बड़े बड़े शायर और अफ़साना निगार उसके ख़ाविंद के साथ मिल कर बहस करते रहते हैं। लेकिन जब उसने ये सोचा कि हिंदुस्तान में सिर्फ़ तीन-चार तरक़्क़ी पसंद अफ़साना निगार हैं तो उसकी आँखों में चमक सी पैदा होगई।

    ये चमक देख कर जोगिंदर सिंह के मूंछों भरे होंट एक दबी दबी सी मुस्कुराहट के बाइ’स कपकपाए, “अमृत... तुम्हें ये सुन कर ख़ुशी होगी कि हिंदुस्तान का एक बहुत बड़ा आदमी मुझसे मिलने की ख़्वाहिश रखता है। उसने मेरे अफ़साने पढ़े हैं और बहुत पसंद किए हैं।”

    अमृत कौर ने पूछा, “ये बड़ा आदमी कवी है या आपकी तरह कहानियां लिखने वाला।”

    जोगिंदर सिंह ने जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकाला और उसे अपने दूसरे हाथ की पुशत पर थपथपाते हुए कहा, “ये आदमी कवि भी है अफ़साना निगार भी है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी ख़ूबी जो उसकी मिटने वाली शोहरत का बाइ’स है और ही है।”

    “वो ख़ूबी क्या है?”

    “वो एक आवारागर्द है।”

    “आवारागर्द?”

    “हाँ, वो एक आवारागर्द है जिसने आवारागर्दी को अपनी ज़िंदगी का नस्ब-उल-ऐ’न बना लिया है... वो हमेशा घूमता रहता है... कभी कश्मीर की ठंडी वादियों में होता है और कभी मुल्तान के तपते हुए मैदानों में। कभी लंका में कभी तिब्बत में...”

    अमृत कौर की दिलचस्पी बढ़ गई, “मगर ये करता क्या है?”

    “गीत इकट्ठे करता है... हिंदुस्तान के हर हिस्से के गीत... पंजाबी, गुजराती, मरहटी, पिशावरी, सरहदी, कश्मीरी, मारवाड़ी... हिंदुस्तान में जितनी ज़बानें बोली जाती हैं, उनके जितने गीत उसको मिलते हैं इकट्ठे कर लेता है।”

    “इतने गीत इकट्ठे करके क्या करेगा।”

    “किताबें छापता है, मज़मून लिखता है ताकि दूसरे भी ये गीत सुन सकें। अंग्रेज़ी ज़बान के कई रिसालों में उसके मज़मून छप चुके हैं। गीत इकट्ठे करना और फिर उनको सलीक़े के साथ पेश करना कोई मामूली काम नहीं। वो बहुत बड़ा आदमी है अमृत, बहुत बड़ा आदमी है और देखो उसने मुझे ख़त कैसा लिखा है।”

    ये कह कर जोगिंदर सिंह ने अपनी बीवी को वो ख़त पढ़ कर सुनाया जो हरिंदरनाथ त्रिपाठी ने उस को अपने गांव से डाकखाना के पते से भेजा था। उस ख़त में हरिंदरनाथ त्रिपाठी ने बड़ी मीठी ज़बान में जोगिंदर सिंह के अफ़सानों की ता’रीफ़ की थी और लिखा था कि आप हिंदुस्तान के तरक़्क़ी पसंद अफ़साना निगार हैं। जब ये फ़िक़रा जोगिंदर सिंह ने पढ़ा तो बोल उठा, “लो देखो, त्रिपाठी साहिब भी लिखते हैं कि मैं तरक़्क़ी पसंद हूँ।”

    जोगिंदर सिंह ने पूरा ख़त सुनाने के बाद एक दो सेकंड अपनी बीवी की तरफ़ देखा और असर मालूम करने के लिए पूछा, “क्यों...?”

    अमृत कौर अपने ख़ाविंद की तेज़ निगाही के बाइ’स कुछ झेंप सी गई और मुस्कुरा कर कहने लगी, “मुझे क्या मालूम... बड़े आदमियों की बातें बड़े ही समझ सकते हैं।”

    जोगिंदर सिंह ने अपनी बीवी की इस अदा पर ग़ौर किया। वो दरअसल हरिंदरनाथ त्रिपाठी को अपने यहां बुलाने और उसे कुछ देर ठहराने की बाबत सोच रहा था।

    “अमृत, मैं कहता हूँ त्रिपाठी साहिब को दा’वत देदी जाये, क्या ख़याल है तुम्हारा... लेकिन मैं ये सोचता हूँ क्या पता है वो इनकार करदे... बहुत बड़ा आदमी है, मुम्किन है वो हमारी इस दा’वत को ख़ुशामद समझे।”

    ऐसे मौक़ों पर वो बीवी को अपने साथ शामिल कर लिया करता था ताकि दा’वत का बोझ दो आदमियों में बट जाये। चुनांचे जब उसने “हमारी” कहा तो अमृत कौर ने जो अपने ख़ाविंद जोगिंदर सिंह की तरह बेहद सादा लौह थी हरिंदरनाथ त्रिपाठी से दिलचस्पी लेना शुरू करदी।

    हालाँकि उसका नाम ही उसके लिए नाक़ाबिल-ए-फ़हम था और ये बात भी उसकी समझ से बालातर थी कि एक आवारागर्द गीत जमा कर कर के कैसे बहुत बड़ा आदमी बन सकता है। जब उससे ये कहा गया था कि हरिंदरनाथ त्रिपाठी गीत जमा करता है तो उसे अपने ख़ाविंद की एक सुनाई हुई बात याद आगई थी कि विलायत में कई लोग तितरीयाँ पकड़ने का काम करते हैं और यूं काफ़ी रुपया कमाते हैं। चुनांचे उसने ख़याल किया था कि शायद त्रिपाठी साहिब ने गीत जमा करने का काम विलायत के किसी आदमी से सीखा होगा।

    जोगिंदर सिंह ने फिर अपना अंदेशा ज़ाहिर किया, “मुम्किन है वो हमारी इस दा’वत को ख़ुशामद समझे।”

    “इसमें ख़ुशामद की क्या बात है और भी तो कई बड़े आदमी आपके पास आते हैं। आप उनको ख़त लिख दीजिए, मेरा ख़याल है वो आपकी दा’वत ज़रूर क़बूल करलेंगे और फिर उनको भी तो आपसे मिलने का बहुत शौक़ है... हाँ, ये तो बताईए क्या उनकी बीवी-बच्चे हैं?”

    “बीवी-बच्चे?” जोगिंदर सिंह ने ख़त का मज़मून अंग्रेज़ी ज़बान में सोचते हुए कहा, “होंगे... ज़रूर होंगे... हाँ हैं, मैंने उनके एक मज़मून में पढ़ा था, उनकी बीवी भी है और एक बच्ची भी है।”

    ये कह कर जोगिंदर सिंह उठा, ख़त का मज़मून उसके दिमाग़ में मुकम्मल हो चुका था। दूसरे कमरे में जा कर उसने छोटे साइज़ का पैड निकाला जिस पर वो ख़ास ख़ास आदमियों को ख़त लिखा करता था और हरिंदरनाथ त्रिपाठी के नाम उर्दू में दा’वतनामा लिखा। ये उस मज़मून का तर्जुमा था जो उस ने अपनी बीवी से गुफ़्तुगू करते वक़्त सोच लिया था।

    तीसरे रोज़ हरिंदरनाथ त्रिपाठी का जवाब आया। जोगिंदर सिंह ने धड़कते हुए दिल के साथ लिफ़ाफ़ा खोला। जब उसने पढ़ा कि उसकी दा’वत क़बूल करली गई है तो उसका दिल और भी धड़कने लगा।

    उसकी बीवी अमृत कौर धूप में अपने छोटे बच्चे के केसों में दही डाल कर मल रही थी कि जोगिंदर सिंह लिफ़ाफ़ा हाथ में लेकर उसके पास पहुंचा, “उन्होंने हमारी दा’वत क़बूल करली, कहते हैं कि वो लाहौर यूं भी एक ज़रूरी काम से आरहे थे... अपनी ताज़ा किताब छपवाने का इरादा रखते हैं... और हाँ, उन्होंने तुम को परनाम कहा है।”

    अमृत कौर इस एहसास से बहुत ख़ुश हुई कि इतने बड़े आदमी ने जिसका काम गीत इकट्ठे करना है उसको परनाम कहा है। चुनांचे उसने दिल ही दिल में ख़ुदा का शुक्र अदा किया कि उसका ब्याह ऐसे आदमी से हुआ जिसको हिंदुस्तान का हर बड़ा आदमी जानता है।

    सर्दियों का मौसम था। नवंबर के पहले दिन थे। जोगिंदर सिंह सुबह सात बजे बेदार होगया और देर तक बिस्तर में आँखें खोले पड़ा रहा। उसकी बीवी अमृत कौर और उसका बच्चा दोनों लिहाफ़ में लेटे पास वाली चारपाई पर पड़े थे, जोगिंदर सिंह ने सोचना शुरू किया।

    त्रिपाठी साहिब से मिल कर उसे कितनी ख़ुशी होगी और ख़ुद त्रिपाठी साहिब को भी यक़ीनन उससे मिल कर बड़ी मसर्रत हासिल होगी क्योंकि वो हिंदुस्तान का जवाँ अफ़्क़ार अफ़साना नवीस और तरक़्क़ी पसंद अदीब है। त्रिपाठी साहिब से वो हर मौज़ू पर गुफ़्तुगू करेगा। गीतों पर देहाती बोलियों पर अफ़सानों पर और ताज़ा जंगी हालात पर।

    वो उनको बताएगा कि दफ़्तर का एक मेहनती क्लर्क होने पर भी वो कैसे अच्छा अफ़साना निगार बन गया। क्या ये अ’जीब सी बात नहीं कि डाकखाना में चिट्ठियों की देख भाल करने वाला इंसान तबअ’न आर्टिस्ट हो।

    जोगिंदर सिंह को इस बात पर बहुत नाज़ था कि डाकखाना में मज़दूरों की तरह छः-सात घंटे काम करने के बाद भी वो इतना वक़्त निकाल लेता है कि एक माहाना पर्चा मुरत्तब करता है और दो तीन पर्चों के लिए हर महीने एक अफ़साना भी लिखता है। दोस्तों को हर हफ़्ते जो लंबे-चौड़े ख़त लिखे जाते थे, उनका ज़िक्र अलग रहा।

    देर तक वो बिस्तर पर लेटा हरिंदरनाथ त्रिपाठी से अपनी पहली मुलाक़ात की ज़ेहनी तैयारियां करता रहा। जोगिंदर सिंह ने उसके अफ़साने और मज़मून पढ़े थे और उसका फ़ोटो भी देखा था और किसी के अफ़साने पढ़ और फ़ोटो देख कर वो आमतौर पर यही महसूस किया करता था कि उसने उस आदमी को अच्छी तरह जान लिया है लेकिन हरिंदरनाथ त्रिपाठी के मुआ’मले में उसको अपने ऊपर ए’तबार नहीं आता था।

    कभी उसका दिल कहता था कि त्रिपाठी उसके लिए बिल्कुल अजनबी है। उसके अफ़साना निगार दिमाग़ में बा’ज़ औक़ात त्रिपाठी एक ऐसे आदमी की सूरत में पेश होता था जिसने कपड़ों के बजाय अपने जिस्म पर काग़ज़ लपेट रखे हों और जब वो काग़ज़ों के मुतअ’ल्लिक़ सोचता तो उसे अनारकली की वो दीवार याद आजाती थी जिस पर सिनेमा के इश्तिहार ऊपर तले इतनी तादाद में चिपके हुए थे कि एक और दीवार बन गई थी।

    जोगिंदर सिंह बिस्तर पर लेटा देर तक सोचता रहा कि अगर वो ऐसा ही आदमी निकल आया तो उस को समझना बहुत दुशवार हो जाएगा। मगर बाद में जब उसको अपनी ज़ेहानत का ख़याल आया तो उसकी मुश्किलें आसान होगईं और वो उठ कर हरिंदर नाथ त्रिपाठी के इस्तक़बाल की तैयारियों में मसरूफ़ होगया।

    ख़त-ओ-किताबत के ज़रिये से ये तय होगया था कि हरिंदरनाथ त्रिपाठी ख़ुद जोगिंदर सिंह के मकान पर चला आएगा क्योंकि त्रिपाठी ये फ़ैसला नहीं कर सका था कि वो लारी से सफ़र करेगा या रेलवे ट्रेन से। बहरहाल ये बात तो क़तई तौर पर तय हो गई थी कि जोगिंदर सिंह सोमवार को डाकखाना से छुट्टी लेकर सारा दिन अपने मेहमान का इंतिज़ार करेगा।

    नहाधो कर और कपड़े बदल कर जोगिंदर सिंह देर तक बावर्चीख़ाना में अपनी बीवी के साथ बैठा रहा। दोनों ने चाय देर से पी, इस ख़याल से कि शायद त्रिपाठी आजाए। लेकिन जब वो आया तो उन्हों ने केक वग़ैरा सँभाल कर अलमारी में रख दिए और ख़ुद ख़ाली चाय पी कर मेहमान के इंतिज़ार में बैठ गए।

    जोगिंदर सिंह बावर्चीख़ाने से उठकर अपने कमरे में चला आया। आईने के सामने खड़े होकर जब उस ने अपनी दाढ़ी के बालों में लोहे के छोटे छोटे क्लिप अटकाने शुरू किए कि वो नीचे की तरफ़ तह हो जाएं तो बाहर दरवाज़ पर दस्तक हुई। दाढ़ी को वैसे ही ना-मुकम्मल हालत में छोड़कर उस ने डेयुढ़ी का दरवाज़ा खोला। जैसा कि उसको मालूम था सबसे पहले उसकी नज़र हरिंदरनाथ त्रिपाठी की स्याह घनी दाढ़ी पर पड़ी जो उसकी दाढ़ी से बीस गुना बड़ी थी बल्कि इससे भी कुछ ज़्यादा।

    हरिंदरनाथ के होंटों पर जो बड़ी बड़ी मूंछों के अंदर छुपे हुए थे मुस्कुराहट पैदा हुई। उसकी एक आँख जो क़दरे टेढ़ी थी ज़्यादा टेढ़ी होगई और उसने अपनी लंबी लंबी ज़ुल्फ़ों को एक तरफ़ झटक कर अपना हाथ जो किसी किसान का हाथ मालूम होता था जोगिंदर सिंह की तरफ़ बढ़ा दिया।

    जोगिंदर सिंह ने जब उसके हाथ की मज़बूत गिरफ़्त महसूस की और उसको त्रिपाठी का वो चरमी थैला नज़र आया जो हामिला औरत के पेट की तरह फूला हुआ था तो वो बहुत मुतअस्सिर हुआ। वो सिर्फ़ इस क़दर कह सका, “त्रिपाठी साहिब आप से मिल कर मुझे बेहद होशी हुई है।”

    हरिंदरनाथ त्रिपाठी को आए अब पंद्रह रोज़ हो चुके थे। उसकी आमद के दूसरे रोज़ ही उसकी बीवी और बच्ची भी आगई थीं। ये दोनों त्रिपाठी के साथ ही गांव से आई थीं मगर दो रोज़ के लिए मज़ंग में एक दूर के रिश्तेदार के हाँ ठहर गई थीं और चूँकि त्रिपाठी ने उस रिश्तेदार के पास उनका ज़्यादा देर तक ठहरना मुनासिब नहीं समझा था इसलिए उसने उनको अपने पास बुलवा लिया था।

    पहले चार दिन बड़ी दिलचस्प बातों में सर्फ़ हुए। हरिंदरनाथ त्रिपाठी से अपने अफ़सानों की ता’रीफ़ सुनकर जोगिंदर बहुत ख़ुश होता रहा। उसने एक मुकम्मल अफ़साना जो कि ग़ैर मतबूआ था त्रिपाठी को सुनाया और दाद हासिल की। दो ना-मुकम्मल अफ़साने भी सुनाए जिनके मुतअ’ल्लिक़ त्रिपाठी ने अच्छी राय का इज़हार किया। तरक़्क़ी पसंद अदब पर भी बहसें होती रहीं।

    मुख़्तलिफ़ अफ़साना निगारों की फ़न्नी कमज़ोरियां निकाली गईं। नई और पुरानी शायरी का मुक़ाबला किया गया। ग़रज़ कि ये चार दिन बड़ी अच्छी तरह गुज़रे और जोगिंदर सिंह त्रिपाठी की शख़्सियत से बहुत मुतअस्सिर हुआ।

    उसकी गुफ़्तुगू का अंदाज़ जिसमें ब-यक-वक़्त बचपना और बुढ़ापा था, जोगिंदर को बहुत पसंद आया। उसकी लंबी दाढ़ी जो उसकी अपनी दाढ़ी से बीस गुना बड़ी थी, उसके ख़यालात पर छा गई और उस की काली काली ज़ुल्फ़ें जिनमें देहाती गीतों की सी रवानी थी, हर वक़्त उसकी आँखों के सामने रहने लगीं। डाकखाने में चिट्ठियों की देख भाल करने के दौरान में भी त्रिपाठी की ये ज़ुल्फ़ें उसे भूलतीं।

    चार दिन में त्रिपाठी ने जोगिंदर सिंह को मोह लिया। वो इसका गिरवीदा होगया। उसकी टेढ़ी आँख में भी उसको ख़ूबसूरती नज़र आने लगी, बल्कि एक बार तो उसने सोचा, अगर उनकी आँख में टेढ़ापन होता तो चेहरे पर ये बुजु़र्गी कभी पैदा होती।

    त्रिपाठी के मोटे मोटे होंट जब त्रिपाठी की घनी मूंछों के पीछे हिलते तो जोगिंदर ऐसा महसूस करता कि झाड़ियों में परिंदे बोल रहे हैं। त्रिपाठी हौले-हौले बोलता था और बोलते-बोलते जब वो अपनी लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरता तो जोगिंदर के दिल को बहुत राहत पहुंचती। वो समझता था कि उसके दिल पर प्यार से हाथ फेरा जा रहा है।

    चार रोज़ तक जोगिंदर ऐसी फ़िज़ा में रहा जिसको अगर वो अपने किसी अफ़साने में भी बयान करना चाहता तो कर सकता। लेकिन पांचवीं रोज़ एका एकी त्रिपाठी ने अपना चरमी थैला खोला और उस को अपने अफ़साने सुनाने शुरू किए और दस रोज़ तक वो मुतवातिर उसको अपने अफ़साने सुनाता रहा। इस दौरान में त्रिपाठी ने जोगिंदर को कई किताबें सुना दीं।

    जोगिंदर सिंह तंग आगया। अब उसको अफ़सानों से नफ़रत पैदा होगई। त्रिपाठी का चरमी थैला जिस का पेट बनियों की तोंद की तरह फूला हुआ था, उसके लिए एक मुस्तक़िल अ’ज़ाब बन गया। हर रोज़ शाम को दफ़्तर से लौटते हुए उसे इस बात का खटका रहने लगा कि कमरे में दाख़िल होते ही उसकी त्रिपाठी से मुलाक़ात होगी। इधर-उधर की चंद सरसरी बातें होंगी, वो चरमी थैला खोला जाएगा और उसको एक या दो तवील अफ़साने सुना दिए जाऐंगे।

    जोगिंदर सिंह तरक़्क़ी पसंद था। ये तरक़्क़ी पसंदी अगर उसके अंदर होती तो वो साफ़ लफ़्ज़ों में त्रिपाठी से कह देता, “बस... बस... त्रिपाठी साहब, बस... बस अब मुझमें आपके अफ़साने सुनने की ताक़त नहीं रही।”

    मगर वो सोचता, “नहीं नहीं... मैं तरक़्क़ी पसंद हूँ। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए। दरअसल ये मेरी कमज़ोरी है कि अब उनके अफ़साने मुझे अच्छे नहीं लगते। उनमें ज़रूर कोई कोई ख़ूबी होगी... इसलिए कि उनके पहले अफ़साने मुझे ख़ूबीयों से भरे नज़र आते थे... मैं... मैं... मुतअ’स्सिब होगया हूँ।”

    एक हफ़्ते से ज़्यादा अ’र्से तक जोगिंदर सिंह के तरक़्क़ी पसंद दिमाग़ में ये कश्मकश जारी रही और वो सोच सोच कर इस हद तक पहुंच गया जहां सोच-बिचार हो ही नहीं सकता। तरह तरह के ख़याल उसके दिमाग़ में आते मगर वो उनकी ठीक तौर पर जांच-पड़ताल कर सकता।

    उसकी ज़ेहनी अफ़रातफ़री आहिस्ता आहिस्ता बढ़ती गई और वह ऐसा महसूस करने लगा कि एक बहुत बड़ा मकान है जिसमें बेशुमार खिड़कियां हैं। उस मकान के अंदर वो अकेला है। आंधी आगई है, कभी इस खिड़की के पट बजते हैं, कभी उस खिड़की के, और उसकी समझ में नहीं आता कि वो इतनी खिड़कियों को एक दम बंद कैसे करे।

    जब त्रिपाठी को उसके यहां आए बीस रोज़ होगए तो उसे बेचैनी महसूस होने लगी। त्रिपाठी अब शाम को नया अफ़साना लिख कर जब उसे सुनाता तो जोगिंदर को ऐसा महसूस होता कि बहुत सी मक्खियां उसके कानों के पास भिनभिना रही हैं। वो किसी और ही सोच में ग़र्क़ होता।

    एक रोज़ त्रिपाठी ने जब उसको अपना ताज़ा अफ़साना सुनाया जिसमें किसी औरत और मर्द के जिन्सी तअ’ल्लुक़ात का ज़िक्र था तो ये सोच कर उसके दिल को धक्का सा लगा कि पूरे इक्कीस दिन अपनी बीवी के पास सोने के बजाय वो एक लम डढ़ील के साथ एक ही लिहाफ़ में सोता रहा है। इस एहसास ने जोगिंदर के दिल-ओ-दिमाग़ में एक लम्हा के लिए इन्क़लाब बरपा कर दिया।

    “ये कैसा मेहमान है कि जोंक की तरह चिमट कर ही रह गया है। यहां से हिलने का नाम ही नहीं लेता... और... और... मैं उनकी बीवी साहिबा को तो भूल ही गया था और उनकी बच्ची... सारा घर उठ कर यहां चला आया है। ज़र्रा भर ख़याल नहीं कि एक ग़रीब आदमी का कचूमर निकल जाएगा....

    मैं डाकखाने में मुलाज़िम हूँ सिर्फ़ पचास रुपय माहवार कमाता हूँ, आख़िर कब तक उनकी ख़ातिर तवाज़ो करता रहूँगा और फिर अफ़साने... उसके अफ़साने जो कि ख़त्म होने ही में नहीं आते। मैं इंसान हूँ। लोहे का ट्रंक नहीं हूँ जो हर रोज़ उसके अफ़साने सुनता रहूं... और किस क़दर ग़ज़ब है कि मैं अपनी बीवी के पास तक नहीं गया... सर्दियों की ये रातें ज़ाए तो हो रही हैं।”

    इक्कीस दिनों के बाद जोगिंदर त्रिपाठी को एक नई रोशनी में देखने लगा। अब उसको त्रिपाठी की हर चीज़ मा’यूब नज़र आने लगी। उसकी टेढ़ी आँख जिसमें जोगिंदर पहले ख़ूबसूरती देखता था अब सिर्फ़ एक टेढ़ी आँख थी। उसकी काली ज़ुल्फ़ों में भी अब जोगिंदर को वो मुलाइमी दिखाई नहीं देती थी और उसकी दाढ़ी देखकर अब वो सोचता था कि इतनी लंबी दाढ़ी रखना बहुत बड़ी हमाक़त है।

    जब त्रिपाठी को उसके यहां आए पच्चीस दिन होगए तो एक अ’जीब-ओ-ग़रीब कैफ़ियत उसके ऊपर तारी होगई। वो अपने आपको अजनबी समझने लगा, उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे वो कभी जोगिंदर सिंह को जानता था मगर अब नहीं जानता। अपनी बीवी के मुतअ’ल्लिक़ वो सोचता, “जब त्रिपाठी चला जाएगा और सब ठीक हो जाएगा तो मेरी नए सिरे से शादी होगी... मेरी वो पुरानी ज़िंदगी जिसको टाट के तौर पर ये लोग इस्तेमाल कर रहे हैं फिर ऊद कर आएगी... मैं फिर अपनी बीवी के साथ सो सकूँगा... और... और...”

    इसके आगे जब वो सोचता तो जोगिंदर सिंह की आँखों में आँसू जाते और उसके हलक़ में कोई तल्ख़ सी चीज़ फंस जाती। उसका जी चाहता कि दौड़ा दौड़ा अंदर जाये और अमृत कौर को जो कभी उसकी बीवी हुआ करती थी अपने गले से लगाले और रोना शुरू करदे। मगर ऐसा करने की हिम्मत उसमें नहीं थी क्योंकि वो तरक़्क़ी पसंद अफ़साना निगार था।

    कभी कभी जोगिंदर सिंह के दिल में ये ख़याल दूध के उबाल की तरह उठता कि तरक़्क़ी पसंदी का लिहाफ़ जो उसने ओढ़ रखा है उतार फेंके और चिल्लाना शुरू कर दे, “त्रिपाठी, तरक़्क़ी पसंदी की ऐसी तैसी। तुम और तुम्हारे इकट्ठे किए हुए गीत सब बकवास हैं... मुझे अपनी बीवी चाहिए... तुम्हारी ख्वाहिशें तो सारी गीतों में जज़्ब हो चुकी हैं, मगर मैं अभी जवान हूँ... मेरी हालत पर रहम करो... ज़रा ग़ौर तो करो मैं जो एक मिनट अपनी बीवी के बग़ैर नहीं रह सकता था, पच्चीस दिनों से तुम्हारे साथ एक ही लिहाफ़ में सो रहा हूँ... क्या ये ज़ुल्म नहीं।”

    जोगिंदर सिंह बिस घोल के रह जाता। त्रिपाठी उसकी हालत से बेख़बर हर रोज़ शाम को उसे अपना ताज़ा अफ़साना सुना देता और उसके साथ लिहाफ़ में सो जाता। जब एक महीना गुज़र गया तो जोगिंदर सिंह का पैमाना-ए-सब्र लबरेज़ होगया। मौक़ा पा कर ग़ुसलख़ाने में वो अपनी बीवी से मिला।

    धड़कते हुए दिल के साथ इस डर के मारे कि त्रिपाठी की बीवी आजाए उसने जल्दी से उसका यूं बोसा लिया जैसे डाकखाना में लिफाफों पर मोहर लगाई जाती हो और कहा, “आज रात तुम जागती रहना। मैं त्रिपाठी से ये कह कर बाहर जा रहा हूँ कि रात के ढाई बजे वापस आऊँगा लेकिन मैं जल्दी आजाऊँगा। बारह बजे... पूरे बारह बजे, मैं हौले-हौले दस्तक दूंगा तुम चुपके से दरवाज़ा खोल देना और फिर हम... ड्योढ़ी बिलकुल अलग थलग है। लेकिन तुम एहतियात के तौर पर वो दरवाज़ा जो गुस्लखाना की तरफ़ खुलता है, बंद कर देना।”

    बीवी को अच्छी तरह समझा कर वो त्रिपाठी से मिला और उससे रुख़सत लेकर चला गया। बारह बजने में चार सर्द घंटे बाक़ी थे जिनमें से दो जोगिंदर सिंह ने अपनी साईकल पर इधर उधर घूमने में काटे। उसको सर्दी की शिद्दत का बिल्कुल एहसास हुआ इसलिए कि बीवी से मिलने का ख़याल काफ़ी गर्म था।

    दो घंटे साईकल पर घूमने के बाद वो अपने मकान के पास मैदान में बैठ गया और महसूस करने लगा कि वो रूमानी होगया है। जब उसने सर्द रात की धुंदयाली ख़ामोशी का ख़याल किया तो उसे ये एक जानी पहचानी चीज़ मालूम हुई। ऊपर ठिठुरे हुए आसमान पर तारे चमक रहे थे जैसे पानी की मोटी मोटी बूंदें जम कर मोती बन गई हैं। कभी कभी रेलवे इंजन की चीख़ ख़ामोशी को छेड़ देती और जोगिंदर सिंह का अफ़साना निगार दिमाग़ ये सोचता कि ख़ामोशी बहुत बड़ा बर्फ़ का ढेला है और सीटी की आवाज़ मेख़ है जो उसके सीने में खुब गई है।

    बहुत देर तक जोगिंदर एक नए क़िस्म के रुमान को अपने दिल-ओ-दिमाग़ में फैलाता रहा और रात की अंधयारी ख़ूबसूरतियों को गिनता रहा। एका एकी इन ख़यालात से चौंक कर उसने घड़ी में वक़्त देखा तो बारह बजने में दो मिनट बाक़ी थे। उठकर उसने घर का रुख़ किया और दरवाज़े पर हौले से दस्तक दी। पाँच सेकंड गुज़र गए, दरवाज़ा खुला। एक बार उसने फिर दस्तक दी।

    दरवाज़ा खुला, जोगिंदर सिंह ने हौले से कहा “अमृत...” और जब नज़रें उठा कर उसने देखा तो अमृत कौर के बजाय त्रिपाठी खड़ा था। अंधेरे में जोगिंदर सिंह को ऐसा मालूम हुआ कि त्रिपाठी की दाढ़ी इतनी लंबी हो गई है कि ज़मीन को छू रही है।

    उसको फिर त्रिपाठी की आवाज़ सुनाई दी, “तुम जल्दी आगए... चलो ये भी अच्छा हुआ मैं ने अभी अभी एक अफ़साना मुकम्मल किया है... आओ सुनो।”

    स्रोत:

    دھواں

      • प्रकाशन वर्ष: 1941

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