सय्यदा अरशिया हक़
ग़ज़ल 3
अशआर 16
तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
एक औरत का दर्द क्या जानो
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औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
ये बोल ख़ानदान की इज़्ज़त पे हर्फ़ है
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ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
मिरी हालत बिगड़ती जा रही है
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सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
'हक़' कहो कौन तुम को चाहेगा
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यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
ख़ुदा जो होता अगर क्या ख़ुदा नहीं सुनता
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