मीरास
जब टीपू सुलतान का घोड़ा टी टी नगर से गुज़रा और बाणगंगा के पुल के क़रीब पहुंचा तो एक जलेबी वाले को देखकर घोड़ा मचल गया। थके-मारे घोड़े ने बहुत दिनों से जलेबियों की शक्ल नहीं देखी थी। वो बिदका और दोलतियाँ उछालने लगा। टीपू अपने घोड़े को बहुत चाहता था। पस उसने जलेबी वाले को आवाज़ दी और आधा किलो जलेबियां उसी वक़्त ख़रीद लीं। जलेबी वाले ने एक अख़बार में तौल कर जलेबियां दीं, टीपू उतरा और अपने घोड़े को ताज़ी ताज़ी जलेबियां खिलाने लगा। जलेबियां ख़त्म हुईं तो टीपू की नज़र अख़बार के टुकड़े में एक ख़बर पर पड़ी। टीपू को ख़बर की सुर्ख़ी ने अपनी तरफ़ खींच लिया। वो सुर्ख़ी कुछ इस तरह थी;
विलायत से शिवा जी की तलवार भवानी की वापसी का मुतालिबा.
टीपू ने शिवा जी के चर्चे मिडल स्कूल में सुन रखे थे। उसे मालूम था कि शिवा जी बेजिगर इन्सान था और उसके तोपखाने में मुसलमान तोपचियों को बड़े अच्छे अच्छे ओह्दे मिले हुए थे जिन्होंने बहुत सी जंगों में शिवा जी के साथ मैदान-ए-जंग में शुजाअत का सबूत दिया था और मग़्लूं के दाँत खट्टे कर दिए थे लेकिन जहां तक उसके इल्म में था शिवा जी की तलवार एक अच्छी तलवार ज़रूर थी। लेकिन उसमें ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी जिसके खो जाने पर अफ़सोस किया जाये। फिर ये कि शिवा जी एक सरदार था उसके क़ब्ज़े में न जाने कितनी तलवारें रही होंगी तो फिर ये भवानी कौन सी तलवार थी जिसकी वापसी के लिए...
यकायक टीपू सुलतान के ख़्यालात का सिलसिला टूट गया। एक दम से उसे एक फ़िल्म याद आगई जो बनारस के घाटों पर पूजापाट कराने वाले कुछ पंडों पर बनाई गई थी और उसमें एक मोटा सा तगड़ा सा आदमी हाथ में एक भयानक सी तलवार लिए एक मुसाफ़िर की गर्दन मारने से पहले 'जय भवानी' का डरावना नारा लगाता है। क़रीब था कि टीपू सिनेमा हाल से उठ आता कि उसके दोस्त ने उसको समझाया कि ये हक़ीक़त नहीं फ़िल्म है।
उस दिन भी उसको भवानी के बारे में मालूमात हासिल करने का ज़बरदस्त तजस्सुस पैदा हुआ था और रात को वो बुद्धवारे के चौराहे पर यही सोच कर गया था कि भवानी के बारे में मालूमात हासिल करेगा।
कौन ख़ान...? ये भिवानी क्या शय है? आख़िर को उसने पहली फ़ुर्सत में अपने सबसे पहले मुलाक़ाती से जो अभी ठीक से तहमद समेट कर पटिया पर बैठ भी नहीं पाया था ये सवाल दाग़ दिया।
टीपू का मुलाक़ाती एक बरोकाट पठान था। बढ़ा हुआ शेव, एक आँख क़दरे छोटी, वो हमेशा बीड़ी उल्टी जला कर पीता था और कसीर-उल-औलाद होने के सबब ज़्यादातर घर से बाहर ही रहा करता था। उसके कान में लफ़्ज़ भवानी जैसे ही पड़ा तो उसने तेवर बदल कर टीपू की तरफ़ देखा और सर्द आह खींच कर बोला,
सुलतान कोई और बात करो पठान, आपन को इस लफ़्ज़ से डर लगता है।
डर तो मुझे भी लगता है। सुलतान ने भी अपने दिल की बात कह दी।
पर दादा तुझे क्यों डर लगता है?
सुलतान का मुलाक़ाती कोई पच्चास-पचपन के पेटे में था। उसका कुल असासा एक किराए का मकान, एक दुबली पतली घोड़ी और एक टूटा फूटा ताँगा था। रियासत के नौबत नक़्क़ारों के दरमियान उसने आँख खोली थी, अपने शहर की वो चढ़ाईयां जिन पर वो किसी ज़माने में पड़खेरा से रेलवे स्टेशन तक ट्रेन के साथ साथ अपना ताँगा दौड़ाता था और हमेशा रेलगाड़ी से आगे निकलता था, अपने वतन की वही घाटियाँ अब उसे डराती थीं और वो उन घाटियों को खुले बंदों कोसा करता था।
बुरा क्या ख़ान... वो बुदबुदाया। क़सम क़ुरआन की, पान की दुकान रख ले पर ताँगा न चलाए... उसने एक आह खींची... कितने दिन चलेगी घोड़ी।
सुलतान सब सुनता रहा।
कितने दिन चलेगी घोड़ी? अरे ख़ान, चमारों से बदतर हैं, उन्हें बैंक लोन दे देता है आटो रिक्शा ख़रीद लेते हैं।
सुलतान सब सुनता रहा और सोचता रहा भवानी के बारे में कि उसका साथी फिर गोया हुआ,
दिन-भर अड्डे पर खड़ा जानवर ऊँघता रहता है। शाम को घर क्या ले जाते हो? बोलो क्या ले जाते हो?
सुलतान के पास उसका कोई जवाब न था।
दादा मैंने पूछा था कि तुझे भवानी से डर क्यों लगता है? सुलतान ने उसको टोक दिया।
वही तो बता रहा हूँ ख़ान... अरे ख़ान पठान जैसे दिल लरज़ गया... सड़क पर मज़े मज़े चला रहा था ताँगा, हरामी सडे घोड़ी के थूथन पर सपाटा मारता हुआ निकल गया धुआँ उड़ाता।
कौन ? सुलतान ने सवाल किया।
एक आटो। जवाब मिला, निगाह पड़ी तो उसकी पीठ पर लिखा था... जय भवानी, क़सम क़ुरआन की ऐसी तबीयत बिगड़ी कि ताँगा उसी वक़्त घर वापस ले गया और जानवर खोल कर पड़ रिया।
पर मैं तो शिवा जी की एक तलवार की बात कर रिया हूँ। उसका नाम है भवानी।
होगी। सुलतान का साथी बुरा सा मुँह बना कर बोला।
विलायत में है। अंग्रेज़ ले गए थे। सुलतान ने इत्तिला दी और बोला, उस तलवार को विलायत से वापस मांगा जा रहा है।
हाँ तो दे देंगे वो, उनके किस काम की।
उस तलवार में क्या ख़ास बात थी दादा। उसे वापस क्यों मांगा जा रहा है।
सुलतान के साथी के चेहरे पर एक शरीर मुस्कुराहट दौड़ गई... तेरी मक़अद में उतारने के लिए मांग रहे हैं।
फिर उसने अंगड़ाई ली और बोला, चलूं, जानवर मालिश बोत ले रिया है इन दिनों।
सुलतान सब्रो क़नाअत की ज़िंदगी गुज़ारने वाला एक मामूली ताँगे वाला था। बचपन में मिडल के इम्तिहान में फ़ेल हुआ। जवानी में अखाड़े में एक कुश्ती मारने पर टीपू का लक़ब पाया। बचपन और जवानी के बीच किसी दिन बस चुपके से उसके हाथ में घोड़े की रास पकड़ा दी गई।
सुलतान के हाफ़िज़े में सब कुछ तर-ओ-ताज़ा था। अभी कुछ ही साल पहले की बात है जब शहर में आटो रिक्शा नहीं चलते थे। जब सड़कें इतनी चौड़ी न थीं, जब घाटियाँ इतनी ऊंची न थीं, जब फ़ासले इतने ज़्यादा न थे। जब पीरा गोठ में नए नए सिंधी आए थे, जब पट्टियाँ टूटी नहीं थीं। जब ख़ौफ़ इतना पास नहीं था और जब वस्वसे इतने दिलेर भी नहीं हुए थे, जब बया लोग इतनी घटिया सिगरेट नहीं पिया करते थे और जब सेठ साहूकार ख़सारा दिखाने के लिए और शरीफ़ों की पगड़ी उछालने के लिए उर्दू का अख़बार नहीं निकाला करते थे। उन्हें दिनों की बात है कि वो अपने घोड़े के सुमों पर मक्खन मलता था और चाँद-रात में दो सौ रुपये अपने हाथों से ख़र्च करता था।
सुलतान शहर के बहुत से समझदार और शरीफ़ लोगों को जानता था। एक दिन वो इबराहीमपुरा से गुज़रा तो घरु मियां की दुकान पर उसे शहर के कुछ मुहज़्ज़ब और ख़ुश फ़िक्र लोगों का जराऊ दिखाई दिया। सुलतान उनमें से अक्सर चेहरों को पहचानता था। पहुंचा सलाम करके एक से बोला, मियां माफ़ करना एक बात बताओगे?
हाँ हाँ... सुलतान को जवाब मिला।
बोत दिनों से सोच रहा हूँ ये भवानी क्या चीज़ है।
भवानी, एक ने कहा।
भवानी, दूसरे ने कहा।
सुलतान ने जिन साहिब से सवाल किया था उन्होंने सवाल को दूसरे की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा,
लो ख़ान, इनके सवाल का जवाब दो। पूछते हैं भवानी क्या चीज़ है? एक ख़ुश फ़िक्र ने चुटकी ली, अरे ख़ान, भवानी नहीं जानते। ये एक तरह की बीमारी है, पेट में उतर जाती है तो आदमी ज़्यादा खाने लगता है।
ये सुनकर सबने ज़ोर से क़हक़हा लगाया। सुलतान वहां से खिसयाना हो कर चल पड़ा और कुछ दूर तक इस जरगे में बैठे हुए करख़नदार ख़ां, बाबू खां, शायर ख़ां, बेरोज़गार ख़ां, सहाफ़ी ख़ां और मुदर्रिस मियां के छोड़े हुए क़हक़हे सुलतान का पीछा करते रहे।
ये बाज़ार के लोग कि न तो ये सफ़्फ़ाक लोग थे, न चालाक लोग थे, न बेबस लोग थे, न तो उन्हें भोला ही कहा जा सकता था और न मौक़ा-शनास तो फिर इन बाज़ार के सीधे-साधे लोगों में ये वस्फ़ कहाँ से पैदा हो गया था कि जिस बात को जब चाहते हंसी में उड़ा देते। यकायक सुलतान को लगा कि उन्होंने उसकी बेइज़्ज़ती की है। वो झुँझलाया हुआ पल्टा और उन लोगों के सामने जा कर खड़ा हो गया। वो लोग ख़ामोशी से सुलतान की तरफ़ देखने लगे तो वो उदास हो कर बोला,
आप लोग हंस क्यों रहे हैं। उन्हें सुलतान का ये सवाल अच्छा नहीं लगा, लेकिन चूँकि सुलतान पर बला की संजीदगी तारी थी इसलिए एक ने कहा,
क्यों भाई क्या अब हँसें भी नहीं...
पर मैंने तो बस एक सवाल ही किया था।
सुलतान को संजीदा देखकर एक साहिब जिनके कान में आला लगा था क़दरे संजीदगी से बोले, भाई सुलतान तुम्हारे पास तो एक ही सवाल था ना।
जी हाँ।
लेकिन हमारे पास सैंकड़ों सवाल हैं।
लेकिन आप लोग हंस क्यों दिये?
हंस इसलिए दिये सुलतान भाई कि तुम्हारे सवाल का जवाब तो हमसे मिल गया लेकिन हमारे सवालों का तो कोई उल्टा सीधा जवाब भी नहीं देता और सुलतान भाई तुम ही इन्साफ़ करो (कि इन्साफ़ तुम्हारे बस में नहीं) इन्साफ़ करो कि जिसके सीने में सैंकड़ों सवाल हों और उसको एक सवाल का भी जवाब न मिले और हर पल, हर घड़ी वो नर और मादा सवालात आपस में सोहबत कर के हज़ारों की तादाद में बच्चे जनते चले जाएं और सीना फटने लगे और सांस रुकने लगे और दम घुटने लगे और घर भी अच्छा न लगे और बीवी बच्चे काटने को दौड़ें और सफ़ेद पोशी लाज़िमी हो और कुलाह को कज रखना भी ज़रूरी हो और हर दस्तरख़्वान के एक एक लुक़्मे का हिसाब रखते रखते आँखें डबडबा आएं तो सुलतान मियां आदमी को हर वक़्त हंसते रहना चाहिए। जब कोई सवाल करे तब भी हंस देना चाहिए और जब कोई जवाब दे तब भी हंस देना चाहिए।
ये आदमी जो बहुत बोल रहा था बहुत ख़ामोश रहने वाला आदमी था जो लोग वहां बैठे थे उन्होंने महसूस किया कि उस आदमी का चेहरा सुर्ख़ हो गया है, ऐनक के पीछे चमकती हुई दो आँखें नम दीदा हो गई हैं। उनमें से एक ने उसको जल्दी से पानी पिलाया और उस की पीठ सहलाने लगा जैसे कह रहा हो,
टेक इट इज़ी।
टेक इट इज़ी।
सुलतान खड़ा इस बहुत ज़्यादा बोलने वाले को फटी-फटी आँखों से देख ही रहा था कि वो आदमी सुलतान की आँखों में नफ़रत से देखते हुए बोला,
सीधी बात ये है कि तुम भी ख़ाइफ़ हो और सीधी बात ये है कि ख़ौफ़ हमको भी है और सुलतान भाई अच्छा ये है कि तुम्हारे पास तुम्हारे ख़ौफ़ लफ़्ज़ नहीं रखते और बुरा ये है कि हमारे पास इस ख़ौफ़ के लिए इतने अल्फ़ाज़ मौजूद हैं कि हमने घबरा कर हँसना शुरू कर दिया है। तुम भोले और नासमझ हो इसलिए मारे जाओगे, हम हरामज़ादे और कमीने हैं इसलिए मारे जाऐंगे। नजात दोनों तरफ़ नहीं है। इसलिए सुलतान भाई जब भी मौक़ा मिले भैंसे के कबाब खाओ, अपनी औरत के साथ बुरा काम करो, फिर एक बीड़ी जलाओ और हंसते हुए चले जाओ। तुम्हें क़सम है अपने इकलौते लड़के की इसके इलावा अगर कुछ किया तुमने तो समझना अपनी माँ के साथ बुरा काम किया तुमने...साले... हरामी। हमसे पूछता है कि भवानी क्या चीज़ है।
टेक इट इज़ी।
टेक इट इज़ी।
उस रोज़ सुलतान बार-बार जैसे चौंक पड़ता। चौक में सटटे का नंबर लगाते वक़्त उसने अपनी मैली सी क़मीस में जब हाथ डाला तो हर बार एक रुपये के नोट के बजाय किसी न किसी सियासी पार्टी का कोई बिल्ला या इलेक्शन में खड़े होने वाले किसी नुमाइंदे का पमफ़लेट या किसी अपील का फटा-पुराना पर्चा निकला। उसने सबको ख़ूब ख़ूब गालियां दीं। फिर उसने दूसरी जेब में हाथ डाल कर घोड़े के दाने के पैसों में से सटटे का नंबर लगाया। दो गर्म-गर्म समोसे खाए और बुद्धवारे के चौराहे पर पहुंच कर सोलह गिट्टी खेलने लगा कि इशा की नमाज़ की अज़ान माइक्रोफोन पर सुनाई दी। उसे जैसे झटका सा लगा और वो बेचैन बेचैन सा चालें चलने लगा। आख़िर को उससे नहीं रहा गया तो वो अपने मुक़ाबिल से पूछ बैठा,
भाई, ये भवानी क्या चीज़ होती है।
भवानी तो हिंदू होती है। उसके मुक़ाबिल ने जवाब दिया।
ये तो अपुन को भी पता है कि ये एक देवी का नाम है।
ईद के रोज़ मैं मुरादाबाद में था। उसका मुक़ाबिल बोला, वहां मैंने रातों में कई बार यही नाम सुना था... ऐसा लगता था ख़ान जैसे कलेजा बाहर आजाएगा। बड़े-बूढ़े बताते हैं कि 47 ई. में भी ऐसे नारे कभी नहीं लगे।
क्या कहते थे वो लोग? सुलतान ने धड़कते हुए दिल से पूछा।
जवाब मिला, वो कहते थे जय भवानी।
कौन ख़ान? ऐसा क्यों कहते थे?
इसलिए कि हम डर जाएं और हम डरते थे। क़सम क़ुरआन की मियां, हामिला औरतों के हमल साक़ित हो गए। अल्लाह की पनाह कैसी रातें थीं, कैसे दिन थे।
सुलतान की तबीयत उचट गई। वो बचे-खुचे पैसों से घोड़े के लिए दाना लेकर घर चला गया।
दूसरे रोज़ जुमा था और सुलतान ज़िंदगी में शायद तीसरी या चौथी बार जुमा की नमाज़ पढ़ने मस्जिद गया। वहां उसने वा'ज़ में कुछ इस तरह की बातें सुनीं कि इन्सान को ख़ुदा के सिवा किसी से नहीं डरना चाहिए, किसी के आगे सर न झुकाना चाहिए और अपने दिल से सारे ख़ौफ़ निकाल देना चाहिए। नमाज़ ख़त्म होने पर उसने रास्ते में ही इमाम साहिब को जा लिया और उनसे बोला,
मियां मैं क्या करूँ?
क्या बात है?
पता नहीं, पर बैठे-बैठे चौंक पड़ता हूँ। पता नहीं क्यों बस एक डर सा लगा रहता है हर वख़त।
क्या काम करते हो?
ताँगा चलाता हूँ।
कितने बच्चे हैं?
बस एक लड़का है।
तुम्हारा नाम क्या है?
सुलतान।
माशा अल्लाह, कितना अच्छा नाम है तुम्हारा। जिसका नाम सुलतान हो वह कभी डर सकता है भला। तुम अपने गले में अली (रज़ि.अ.) शेरे ख़ुदा का नाम हर वक़्त पहने रहा करो। सारे डर ख़त्म हो जाऐंगे। वो तुमको हर आफ़त से बचाएँगे। ये कह कर इमाम साहिब आगे बढ़ गए।
सुलतान ने बाद में पता लगाया कि ये नाम कहाँ मिलेगा तो उसको मालूम हुआ कि जुमराती बाज़ार में फूलमति नाम की एक बेवा की छोटी सी तोग़रों की दुकान है, वहां ये नाम मिल जाएगा। एक दिन सुलतान इत्तिफ़ाक़ से फूलमति की दुकान के सामने से गुज़रा तो ठहर गया। बूढ़ी बेवा किसी गाहक से रोते हुए कह रही थी,
हाजी साहिब! मुझ बेवा को और थोड़ी काटनी है। तुम सब का ही सहारा है। दुकान का किराया पाई पाई अदा कर दूंगी। चार दिन का समय और दे दो।
सुलतान ने सोचा फिर मौक़ा मिले या न मिले तोग़रा लेता ही चले। ये सोच कर वो फूलमति की दुकान पर गया। दुकान पर उस वक़्त फूलमति का लड़का बैठा हुआ था। उसके नंगे सीने की पसलियाँ साफ़ नज़र आरही थीं और चेहरे पर सूजन थी। वो बार-बार दमे के मरीज़ की तरह सांस ले रहा था। यकायक सुलतान की नज़र लड़के के गले में लटकी हुई किसी चीज़ पर पड़ी। उसने ग़ौर से देखा वो एक तोग़रा था जिस पर ख़ूबसूरत हुरूफ़ में लिखा था, जय भवानी। सुलतान ने वहां तरह तरह के तोग़रे देखे। सब में एक ही तरह की कारीगरी थी, एक ही तरह का माल था। 'या अली' सुलतान की नज़र यकायक एक तोग़रे पर पड़ी जिसे सुलतान ने आँखों से लगा कर ख़रीद लिया।
रात अपने बिस्तर पर सुलतान तोग़रे की डोरी के सिरे पकड़े। उसे कुछ देर देखता रहा और चाहता था कि उसे अपने गले में पहन ले उसकी नज़र अपने बड़े लड़के पर पड़ी जो पास ही ज़मीन पर एक फटी दरी बिछाए सो रहा था। सुलतान चुपके से अपनी चारपाई से उठा और उसने वो तोग़रा अपने बच्चे के गले में बांध दिया और इस प्यार से अपने बच्चे को देखने लगा जैसे उसने दूसरी बार अपने बाप होने का हक़ अदा किया हो। पहली बार उसको ये एहसास तब हुआ था जब उसने बच्चे की नाज़ुक हथेलियों में अव्वल अव्वल घोड़े की लगाम थमाई थी।
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