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ऐश मेरठी

1916 | मेरठ, भारत

ऐश मेरठी

अशआर 8

करूँ किस का गिला कहते हुए भी शर्म आती है

रक़ीब अफ़्सोस अपने ही पुराने आश्ना निकले

ये भी कोई ज़िंदगी में ज़िंदगी है हम-नफ़स

दिल कहीं है हम कहीं हैं और जानाना कहीं

मिलने पर भी उसे 'ऐश' प्यार करता हूँ

यूँ ऊँचा कर दिया मेआ'र-ए-ज़िंदगी मैं ने

बढ़ती रही निगाह बहकते रहे क़दम

गुज़रा है इस तरह भी ज़माना शबाब का

मेरी जन्नत तिरी निगाह-ए-करम

मुझ से फिर जाए ये ख़ुदा करे

ग़ज़ल 9

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