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बानो सरताज की बच्चों की कहानियाँ
दो बाप दो बेटे
हसन और रोहन की दोस्ती गाँव भर में मशहूर थी। बचपन के दोस्त थे, जवानी में भी दोस्ती क़ायम थी। दोनों के मिज़ाज में इतनी हम-आहंगी थी कि एक चीज़ एक को पसंद आती तो दूसरा भी उसे पसंद करने लगता। किसी बात से एक नाराज़ होता तो दूसरा भी उस तरफ़ से रुख़ फेर लेता। दोनों
बिन काँटों का गुलाब
वो एक छोटा सा, प्यारा सा बच्चा था। एक दिन वो स्कूल जाने के लिए निकला। हवा धीरे-धीरे बह रही थी। जब वो उस जगह से गुज़रा जहाँ क्यारियों में बीसियों क़िस्म के गुलाब खिले हुए थे तो गुलाब की ख़ुशबू ने उसके क़दम रोक लिए। उसके दिल में गुलाबों के क़रीब जाने की
बड़ा कौन
वो बड़ी तेज़ी से सपाट चिकनी सड़क पर चली जा रही थी। चल क्या रही थी, समझो उड़ रही थी। नई-नवेली, ज़र्द, सब्ज़ और सफ़ेद रंगों से सजी। वो एक बस थी। सुबह की ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। बस में सवार मुसाफ़िर नर्म गद्दे वाली सीटों पर नीम-दराज़ मीठी नींद का मज़ा ले रहे
मम्मी ना बोली
फ़ारूक़ मियाँ घर की आँखों का तारा थे। दधियाल, नन्हियाल दोनों की पहली औलाद। जितना चाव होता कम था। ख़ैर से तीन साल के थे मगर ख़ूब बातें करने लगे थे। लाड में आते तो तुतलाने लगते। उनकी हर-हर अदा पर सब क़ुर्बान जाते। उनकी इकलौती फूफी-जान कहा करतीं। “हमारे
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