तुम्हारा हाथ जब मेरे लरज़ते हाथ से छूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
तुम्हारा हाथ जब मेरे लरज़ते हाथ से छूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
अमजद इस्लाम अमजद
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तुम्हारा हाथ जब मेरे लरज़ते हाथ से छूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
वो मोहकम बे-लचक वा'दा खिलौने की तरह टूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
बहार आई न थी लेकिन हवाओं में नए मौसम की ख़ुश्बू रक़्स करती थी
अचानक जब कहा तुम ने मिरे मुँह पर मुझे झूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
वो क्या दिन थे यहीं हम ने बहारों की दुआ की थी किसी ने भी नहीं सोचा
चमन वालों ने मिल कर जब ख़ुद अपना ही चमन लूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
लिखा था एक तख़्ती पर कोई भी फूल मत तोड़े मगर आँधी तो अन-पढ़ थी
सो जब वो बाग़ से गुज़री कोई उखड़ा कोई टूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
बहुत ही ज़ोर से पीटे हवा के बैन पर सीने हमारे ख़ैर-ख़्वाहों ने
कि चाँदी के वरक़ जैसा समय ने जब हमें कूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
न रुत थी आँधियों की ये न मौसम था हवाओं का तो फिर ये क्या हुआ 'अमजद'
हर इक कोंपल हुई ज़ख़्मी हुआ मजरूह हर बूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
- पुस्तक : Batain Kartay Din (पृष्ठ 162)
- रचनाकार : Amjad Islam Amjad
- प्रकाशन : Sang-e-meel Publications (2014)
- संस्करण : 2014
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