उलझे काँटों से कि खेले गुल-ए-तर से पहले
उलझे काँटों से कि खेले गुल-ए-तर से पहले
फ़िक्र ये है कि सबा आए किधर से पहले
जाम-ओ-पैमाना-ओ-साक़ी का गुमाँ था लेकिन
दीदा-ए-तर ही था याँ दीदा-ए-तर से पहले
अब्र-ए-नैसाँ की न बरकत है न फ़ैज़ान-ए-बहार
क़तरे गुम हो गए ता'मीर-ए-गुहर से पहले
जम गया दिल में लहू सूख गए आँखों में अश्क
थम गया दर्द-ए-जिगर रंग-ए-सहर से पहले
क़ाफ़िले आए तो थे नारों के परचम ले कर
सर-निगूँ हो गई हर आह असर से पहले
ख़ून-ए-सर बह गया मौत आ गई दीवानों को
बारिश-ए-संग से तूफ़ान-ए-शरर से पहले
सुर्ख़ी-ए-ख़ून-ए-तमन्ना की महक आती है
दिल कोई टूटा है शायद गुल-ए-तर से पहले
मक़तल-ए-शौक़ के आदाब निराले हैं बहुत
दिल भी क़ातिल को दिया करते हैं सर से पहले
- पुस्तक : Kulliyat-e-Ali Sardar Jafri Vol.II (पृष्ठ 342)
- रचनाकार : Ali Ahmad Fatmi
- प्रकाशन : Qaumi Council Baray-e-farog Urdu Zaban, New Delhi (2005)
- संस्करण : 2005
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