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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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ताज-महल

कैफ़ी आज़मी

ताज-महल

कैफ़ी आज़मी

दोस्त! मैं देख चुका ताज-महल

.....वापस चल

मरमरीं मरमरीं फूलों से उबलता हीरा

चाँद की आँच में दहके हुए सीमीं मीनार

ज़ेहन-ए-शाएर से ये करता हुआ चश्मक पैहम

एक मलिका का ज़िया-पोश फ़ज़ा-ताब मज़ार

ख़ुद ब-ख़ुद फिर गए नज़रों में ब-अंदाज़-ए-सवाल

वो जो रस्तों पे पड़े रहते हैं लाशों की तरह

ख़ुश्क हो कर जो सिमट जाते हैं बे-रस आसाब

धूप में खोपड़ियाँ बजती हैं ताशों की तरह

दोस्त मैं देख चुका ताज-महल

.....वापस चल

ये धड़कता हुआ गुम्बद में दिल-ए-शाहजहाँ

ये दर-ओ-बाम पे हँसता हुआ मलिका का शबाब

जगमगाता है हर इक तह से मज़ाक़-ए-तफ़रीक़

और तारीख़ उढ़ाती है मोहब्बत की नक़ाब

चाँदनी और ये महल आलम-ए-हैरत की क़सम

दूध की नहर में जिस तरह उबाल जाए

ऐसे सय्याह की नज़रों में खुपे क्या ये समाँ

जिस को फ़रहाद की क़िस्मत का ख़याल जाए

दोस्त मैं देख चुका ताज-महल

.....वापस चल

ये दमकती हुई चौखट ये तिला-पोश कलस

इन्हीं जल्वों ने दिया क़ब्र-परस्ती को रिवाज

माह अंजुम भी हुए जाते हैं मजबूर-ए-सुजूद

वाह आराम-गह-ए-मलिका-ए-माबूद-मिज़ाज

दीदनी क़स्र नहीं दीदनी तक़्सीम है ये

रू-ए-हस्ती पे धुआँ क़ब्र पे रक़्स-ए-अनवार

फैल जाए इसी रौज़ा का जो सिमटा दामन

कितने जाँ-दार जनाज़ों को भी मिल जाए मज़ार

दोस्त मैं देख चुका ताज-महल

.....वापस चल

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