अहमद जावेद
ग़ज़ल 25
नज़्म 9
अशआर 18
दुनिया मिरे पड़ोस में आबाद है मगर
मेरी दुआ-सलाम नहीं उस ज़लील से
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दिल-ए-बेताब के हमराह सफ़र में रहना
हम ने देखा ही नहीं चैन से घर में रहना
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ये एक लम्हे की दूरी बहुत है मेरे लिए
तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार करने को
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मशग़ूल हैं सफ़ाई-ओ-तौसी-ए-दिल में हम
तंगी न इस मकान में हो मेहमान को
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ख़बर नहीं है मिरे बादशाह को शायद
हज़ार मर्तबा आज़ाद ये ग़ुलाम हुआ
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