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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अख़तर मुस्लिमी

1928 - 1989 | आज़मगढ़, भारत

परम्परा की गहरी चेतना के साथ शायरी करने के लिए प्रसिद्ध

परम्परा की गहरी चेतना के साथ शायरी करने के लिए प्रसिद्ध

अख़तर मुस्लिमी

ग़ज़ल 11

अशआर 24

मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना

है जिगर चाक मगर लब पे हँसी है दोस्त

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मिरे दिल पे हाथ रख कर मुझे देने वाले तस्कीं

कहीं दिल की धड़कनों से तुझे चोट जाए

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वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले

है रीत देश देश की चलन चलन की बात है

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सुन के रूदाद-ए-अलम मेरी वो हँस कर बोले

और भी कोई फ़साना है तुम्हें याद कि बस

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हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से

आते भी नहीं ग़म-ख़ाने तक वादा भी वफ़ा हो जाता है

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पुस्तकें 5

 

चित्र शायरी 1

 

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