अख़्तर शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल 17
अशआर 20
दिलों में कर्ब बढ़ता जा रहा है
मगर चेहरे अभी शादाब से हैं
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पुराने वक़्तों के कुछ लोग अब भी कहते हैं
बड़ा वही है जो दुश्मन को भी मुआ'फ़ करे
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मैं झूट को सच्चाई के पैकर में सजाता
क्या कीजिए मुझ को ये हुनर ही नहीं आया
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रंज-ओ-ग़म ठोकरें मायूसी घुटन बे-ज़ारी
मेरे ख़्वाबों की ये ता'बीर भी हो सकती है
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