अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल 14
नज़्म 3
अशआर 10
दर्द बढ़ कर दवा न हो जाए
ज़िंदगी बे-मज़ा न हो जाए
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मेरी बेताबियों से घबरा कर
कोई मुझ से ख़फ़ा न हो जाए
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दर्द का फिर मज़ा है जब 'अख़्तर'
दर्द ख़ुद चारासाज़ हो जाए
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ये और बात कि इक़रार कर सकें न कभी
मिरी वफ़ा का मगर उन को ए'तिबार तो है
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मुझे आँखें दिखाएगी भला क्या गर्दिश-ए-दौराँ
मिरी नज़रों ने देखा है तिरा ना-मेहरबाँ होना
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