अमानत लखनवी
ग़ज़ल 13
अशआर 15
किस तरह 'अमानत' न रहूँ ग़म से मैं दिल-गीर
आँखों में फिरा करती है उस्ताद की सूरत
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बोसा आँखों का जो माँगा तो वो हँस कर बोले
देख लो दूर से खाने के ये बादाम नहीं
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घर मिरे शब को जो वो रश्क-ए-क़मर आ निकला
हो गए परतव-ए-रुख़ से दर ओ दीवार सफ़ेद
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किस क़दर दिल से फ़रामोश किया आशिक़ को
न कभी आप को भूले से भी मैं याद आया
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