aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1871 - 1942 | हैदराबाद, भारत
अल्ताफ़ हुसैन हाली के प्रमुख शिष्य
हम को न मिल सका तो फ़क़त इक सुकून-ए-दिल
ऐ ज़िंदगी वगर्ना ज़माने में क्या न था
दीदार की तलब के तरीक़ों से बे-ख़बर
दीदार की तलब है तो पहले निगाह माँग
सज़ाएँ तो हर हाल में लाज़मी थीं
ख़ताएँ न कर के पशेमानीयाँ हैं
वो काफ़िर-निगाहें ख़ुदा की पनाह
जिधर फिर गईं फ़ैसला हो गया
बंदा-परवर मैं वो बंदा हूँ कि बहर-ए-बंदगी
जिस के आगे सर झुका दूँगा ख़ुदा हो जाएगा
मअारिफ़-ए-जमील
1938
Marif-e-Jameel
हम को न मिल सका तो फ़क़त इक सुकून-ए-दिल ऐ ज़िंदगी वगर्ना ज़माने में क्या न था
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