अज़हर सज्जाद
ग़ज़ल 8
अशआर 3
फिर मुलाक़ात का तूफ़ान उठा है दिल में
फिर से इक बार बिछड़ जाने की तय्यारी है
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रोज़ ज़िंदान की दीवार पे लिखता है कोई
हाए तन्हाई सलासिल से कहीं भारी है
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अपने मे'यार से नीचे मैं भला क्यों आऊँ
तुम जिसे ज़ो'म समझते हो वो ख़ुद्दारी है
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