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बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान

1727 - 1798 | दिल्ली, भारत

प्रमुख क्लासिकी शायर, मीर तक़ी ‘मीर’ के समकालीन

प्रमुख क्लासिकी शायर, मीर तक़ी ‘मीर’ के समकालीन

बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान

ग़ज़ल 21

अशआर 5

अर्श तक जाती थी अब लब तक भी सकती नहीं

रहम जाता है क्यूँ अब मुझ को अपनी आह पर

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कोई समझाईयो यारो मिरा महबूब जाता है

मिरा मक़्सूद जाता है मिरा मतलूब जाता है

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दिलबरों के शहर में बेगानगी अंधेर है

आश्नाई ढूँडता फिरता हूँ मैं ले कर दिया

सीरत के हम ग़ुलाम हैं सूरत हुई तो क्या

सुर्ख़ सफ़ेद मिट्टी की मूरत हुई तो क्या

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हम सरगुज़िश्त क्या कहें अपनी कि मिस्ल-ए-ख़ार

पामाल हो गए तिरे दामन से छूट कर

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पुस्तकें 1

 

ऑडियो 10

इश्वा है नाज़ है ग़म्ज़ा है अदा है क्या है

कोई किसी का कहीं आश्ना नहीं देखा

ज़ुल्फ़ तेरी ने परेशाँ किया ऐ यार मुझे

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