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हैदर अली आतिश

1778 - 1847 | लखनऊ, भारत

मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन, 19वीं सदी की उर्दू ग़ज़ल का रौशन सितारा।

मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन, 19वीं सदी की उर्दू ग़ज़ल का रौशन सितारा।

हैदर अली आतिश

ग़ज़ल 99

अशआर 94

सनम जिस ने तुझे चाँद सी सूरत दी है

उसी अल्लाह ने मुझ को भी मोहब्बत दी है

बुत-ख़ाना तोड़ डालिए मस्जिद को ढाइए

दिल को तोड़िए ये ख़ुदा का मक़ाम है

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अजब तेरी है महबूब सूरत

नज़र से गिर गए सब ख़ूबसूरत

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पाक होगा कभी हुस्न इश्क़ का झगड़ा

वो क़िस्सा है ये कि जिस का कोई गवाह नहीं

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कुछ नज़र आता नहीं उस के तसव्वुर के सिवा

हसरत-ए-दीदार ने आँखों को अंधा कर दिया

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ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते

उस्ताद अमानत अली ख़ान

यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया

उस्ताद अमानत अली ख़ान

क्या क्या न रंग तेरे तलबगार ला चुके

अज्ञात

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते

टीना सानी

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते

हैदर अली आतिश

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते

हामिद अली ख़ान

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते

शफ़क़त अमानत अली

वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा

मेहदी हसन

सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या

मेहदी हसन

सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या

बेगम अख़्तर

सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या

हैदर अली आतिश

ऑडियो 9

आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था

क्या क्या न रंग तेरे तलबगार ला चुके

काम हिम्मत से जवाँ मर्द अगर लेता है

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