हम्माद नियाज़ी
ग़ज़ल 14
नज़्म 1
अशआर 20
वो पेड़ जिस की छाँव में कटी थी उम्र गाँव में
मैं चूम चूम थक गया मगर ये दिल भरा नहीं
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सुब्ह सवेरे नंगे पाँव घास पे चलना ऐसा है
जैसे बाप का पहला बोसा क़ुर्बत जैसे माओं की
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आख़िरी बार मैं कब उस से मिला याद नहीं
बस यही याद है इक शाम बहुत भारी थी
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बस एक लम्हा तिरे वस्ल का मयस्सर हो
और उस विसाल के लम्हे को दाइमी किया जाए
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