इफ़्तिख़ार नसीम के शेर
उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा
आसमाँ पे चाँद पूरा था मगर आधा लगा
मुझ से नफ़रत है अगर उस को तो इज़हार करे
कब मैं कहता हूँ मुझे प्यार ही करता जाए
अगरचे फूल ये अपने लिए ख़रीदे हैं
कोई जो पूछे तो कह दूँगा उस ने भेजे हैं
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इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
थक गए हो तो मिरे काँधे पे बाज़ू रक्खो
हज़ार तल्ख़ हों यादें मगर वो जब भी मिले
ज़बाँ पे अच्छे दिनों का ही ज़ाइक़ा रखना
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टैग : मुलाक़ात
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कटी है उम्र किसी आबदोज़ कश्ती में
सफ़र तमाम हुआ और कुछ नहीं देखा
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न हो कि क़ुर्ब ही फिर मर्ग-ए-रब्त बन जाए
वो अब मिले तो ज़रा उस से फ़ासला रखना
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टैग : फ़ासला
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ताक़ पर जुज़दान में लिपटी दुआएँ रह गईं
चल दिए बेटे सफ़र पर घर में माएँ रह गईं
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टैग : माँ
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न जाने कब वो पलट आएँ दर खुला रखना
गए हुए के लिए दिल में कुछ जगह रखना
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तिरा है काम कमाँ में उसे लगाने तक
ये तीर ख़ुद ही चला जाएगा निशाने तक
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बहती रही नदी मिरे घर के क़रीब से
पानी को देखने के लिए मैं तरस गया
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ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे
जैसे थे लोग वैसा ही होना पड़ा मुझे
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ग़ैर हो कोई तो उस से खुल के बातें कीजिए
दोस्तों का दोस्तों से ही गिला अच्छा नहीं
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ये कौन मुझ को अधूरा बना के छोड़ गया
पलट के मेरा मुसव्विर कभी नहीं आया
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जिस घड़ी आया पलट कर इक मिरा बिछड़ा हुआ
आम से कपड़ों में था वो फिर भी शहज़ादा लगा
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कोई बादल मेरे तपते जिस्म पर बरसा नहीं
जल रहा हूँ जाने कब से जिस्म की गर्मी के साथ
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दीवार ओ दर झुलसते रहे तेज़ धूप में
बादल तमाम शहर से बाहर बरस गया
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मैं शीशा क्यूँ न बना आदमी हुआ क्यूँकर
मुझे तो उम्र लगी टूट फूट जाने तक
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तू तो उन का भी गिला करता है जो तेरे न थे
तू ने देखा ही नहीं कुछ भी तू पागल है अभी
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जी में ठानी है कि जीना है बहर-हाल मुझे
जिस को मरना है वो चुप-चाप ही मरता जाए
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फ़स्ल-ए-गुल में भी दिखाता है ख़िज़ाँ-दीदा-दरख़्त
टूट कर देने पे आए तो घटा जैसा भी है
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