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इमरान-उल-हक़ चौहान

इमरान-उल-हक़ चौहान

ग़ज़ल 8

अशआर 7

ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, तअल्लुक़, रिश्ते

जान ले लेते हैं आख़िर ये सहारे सारे

हार ही जीत है आईन-ए-वफ़ा की रू से

ये वो बाज़ी है जहाँ जीत के हारे सारे

क्या जाने शाख़-ए-वक़्त से किस वक़्त गिर पड़ूँ

मानिंद-ए-बर्ग-ए-ज़र्द अभी डोलता हूँ मैं

वक़्त हर ज़ख़्म को भर देता है कुछ भी कीजे

याद रह जाती है हल्की सी चुभन की हद तक

रंग हो रौशनी हो या ख़ुशबू

सब में परतव उसी हसीं के हैं

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