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जावेद शाहीन

1922 - 2008 | लाहौर, पाकिस्तान

जावेद शाहीन

ग़ज़ल 56

नज़्म 14

अशआर 15

डूबने वाला था दिन शाम थी होने वाली

यूँ लगा मिरी कोई चीज़ थी खोने वाली

जम्अ करती है मुझे रात बहुत मुश्किल से

सुब्ह को घर से निकलते ही बिखरने के लिए

ख़ुद बना लेता हूँ मैं अपनी उदासी का सबब

ढूँड ही लेती है 'शाहीं' मुझ को वीरानी मिरी

अजनबी बूद-ओ-बाश के क़ुर्ब-ओ-जवार में मिला

बिछड़ा तो वो मुझे किसी और दयार में मिला

कुछ ज़माने की रविश ने सख़्त मुझ को कर दिया

और कुछ बेदर्द मैं उस को भुलाने से हुआ

पुस्तकें 8

 

ऑडियो 12

अजनबी बूद-ओ-बाश के क़ुर्ब-ओ-जवार में मिला

अजब सी कोई बे-यक़ीं रात थी

इक जगह हूँ फिर वहाँ इक याद रह जाने के बाद

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