जीम जाज़िल
ग़ज़ल 5
नज़्म 2
अशआर 6
मैं अपने जिस्म के अंदर न दफ़्न हो जाऊँ
मुझे वजूद के गिरते हुए मकाँ से निकाल
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अश्क आँखों से ये कह कर निकला
ये तिरे ज़ब्त की हद है? हद है
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रक्खी थी तस्वीर तुम्हारी आँखों में
हम ने सारी रात गुज़ारी आँखों में
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एक बच्चा सा बे-सबब 'जाज़िल'
बैठा रहता है रूठ कर मुझ में
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ज़िंदगी तुझ को तिरे दर्द के हर इक पल को
हम ने जिस तरह गुज़ारा है ख़ुदा जानता है
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