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ख़लील मामून

1948 | बैंगलोर, भारत

प्रमुख उत्तर-आधुनिक शायर

प्रमुख उत्तर-आधुनिक शायर

ख़लील मामून के शेर

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लफ़्ज़ों का ख़ज़ाना भी कभी काम आए

बैठे रहें लिखने को तिरा नाम आए

वो बुराई सब से मेरी कर रहे हैं

क्यूँ नहीं करते बयाँ अच्छाइयों को

ऐसा हो ज़िंदगी में कोई ख़्वाब ही हो

अँधियारी रात में कोई महताब ही हो

हर एक काम है धोका हर एक काम है खेल

कि ज़िंदगी में तमाशा बहुत ज़रूरी है

दिल में उमंग और इरादा कोई तो हो

बे-कैफ़ ज़िंदगी में तमाशा कोई तो हो

ऐसे मर जाएँ कोई नक़्श छोड़ें अपना

याद दिल में हो अख़बार में तस्वीर हो

दर्द के सहारे कब तलक चलेंगे

साँस रुक रही है फ़ासला बड़ा है

हज़ारों चाँद सितारे चमक गए होते

कभी नज़र जो तिरी माइल-ए-करम होती

मेरी तरह से ये भी सताया हुआ है क्या

क्यूँ इतने दाग़ दिखते हैं महताब में अभी

मुझे पहुँचना है बस अपने-आप की हद तक

मैं अपनी ज़ात को मंज़िल बना के चलता हूँ

तुम नहीं आओगे ख़बर है हमें

फिर भी हम इंतिज़ार कर लेंगे

चलना लिखा है अपने मुक़द्दर में उम्र भर

मंज़िल हमारी दर्द की राहों में गुम हुई

फ़तह के जश्न में हैं सब सरशार

मैं तो अपनी ही मात में गुम हूँ

मैं मंज़िलों से बहुत दूर गया 'मामून'

सफ़र ने खो दिए सारे निशाँ तुम्हारी तरफ़

सब लोग हमें एक नज़र आते हैं

अंदाज़ा नहीं होता है अब चेहरों का

शायद अपना पता भी मिल जाए

झाँकता हूँ तिरी निगाहों में

जंगलों में कहीं खो जाना है

जानवर फिर मुझे हो जाना है

तुम हो खोए हुए ज़माने में

मैं ख़ुद अपनी ही ज़ात में गुम हूँ

सिर्फ़ चेहरा ही नज़र आता है आईने में

अक्स-ए-आईना नहीं दिखता है आईने में

तेरी क्या ये हालत हो गई है 'मामून'

ख़ुद ही कह रहा है ख़ुद ही सुन रहा है

मुझे तो इश्क़ है फूलों में सिर्फ़ ख़ुशबू से

बुला रही है किसी लाला की महक मुझ को

हर एक जगह भटकते फिरेंगे सारी उम्र

बिल-आख़िर अपने ही घर जाएँगे किसी दिन हम

मसरूफ़-ए-ग़म हैं कौन-ओ-मकाँ जागते रहो

ख़्वाबों से उठ रहा है धुआँ जागते रहो

जो नूर भरते थे ज़ुल्मात-ए-शब के सहरा में

वो चाँद तारे फ़लक से उतर गए शायद

मिरा वजूद अदम भी इक हादसा नया है

मैं दफ़्न हूँ कहीं कहीं से निकल रहा हूँ

जवाब ढूँड के सारे जहाँ से जब लौटे

हमें तो कर गया यक-लख़्त ला-जवाब कोई

रफ़्तार-ए-रोज़-ओ-शब से कहाँ तक निभाऊँगा

थक-हार कर मैं घर की तरफ़ लौट जाऊँगा

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