ख़लील मामून
ग़ज़ल 24
नज़्म 7
अशआर 27
वो बुराई सब से मेरी कर रहे हैं
क्यूँ नहीं करते बयाँ अच्छाइयों को
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दिल में उमंग और इरादा कोई तो हो
बे-कैफ़ ज़िंदगी में तमाशा कोई तो हो
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मुझे पहुँचना है बस अपने-आप की हद तक
मैं अपनी ज़ात को मंज़िल बना के चलता हूँ
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मैं मंज़िलों से बहुत दूर आ गया 'मामून'
सफ़र ने खो दिए सारे निशाँ तुम्हारी तरफ़
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