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ख़ालिद सिद्दीक़ी

ख़ालिद सिद्दीक़ी

ग़ज़ल 4

 

अशआर 6

जो आँख की पुतली में रहा नूर की सूरत

वो शख़्स मिरे घर के अँधेरे का सबब है

बे-कार है बे-म'अनी है अख़बार की सुर्ख़ी

लिक्खा है जो दीवार पे वो ग़ौर-तलब है

बहुत तन्हा है वो ऊँची हवेली

मिरे गाँव के इन कच्चे घरों में

यूँ अगर घटते रहे इंसाँ तो 'ख़ालिद' देखना

इस ज़मीं पर बस ख़ुदा की बस्तियाँ रह जाएँगी

ये कैसी हिजरतें हैं मौसमों में

परिंदे भी नहीं हैं घोंसलों में

पुस्तकें 1

 

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