ख़ुमार कुरैशी
ग़ज़ल 13
अशआर 3
ज़ीस्त का इक गुनाह कर सके न हम
साँस के वास्ते भी मर सके न हम
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'ख़ुमार' ऐसे सफ़र में आँख छिन जाती तो अच्छा था
कहीं शाख़ों का सौदा और कहीं देखा शजर लुटता
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ग़ज़ल लुत्फ़-ओ-असर पा कर ब-तर्ज़-ए-'मीर' रक़्साँ है
चलो बरपा करें महफ़िल चलो देखें शरर लुटता
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