महबूब ख़िज़ां
पुस्तकें 4
चित्र शायरी 3
ये जो हम कभी कभी सोचते हैं रात को रात क्या समझ सके इन मुआमलात को हुस्न और नजात में फ़स्ल-ए-मश्रिक़ैन है कौन चाहता नहीं हुस्न को नजात को ये सुकून-ए-बे-जिहत ये कशिश अजीब है तुझ में बंद कर दिया किस ने शश-जहात को साहिल-ए-ख़याल पर कहकशाँ की छूट थी एक मौज ले गई इन तजल्लियात को आँख जब उठे भर आए शेर अब कहा न जाए कैसे भूल जाए वो भूलने की बात को देख ऐ मिरी निगाह तू भी है जहाँ भी है किस ने बा-ख़बर किया दूसरे की ज़ात को क्या ऐ मिरी निगाह तू भी है जहाँ भी है किस ने बा-ख़बर कहा दूसरे की ज़ात को क्या हुईं रिवायतें अब हैं क्यूँ शिकायतें इशक़-ए-ना-मुराद से हुस्न-ए-बे-सबात को ऐ बहार-ए-सर-गिराँ तू ख़िज़ाँ-नसीब है और हम तरस गए तेरे इल्तिफ़ात को
वीडियो 11
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