मक़बूल नक़्श
ग़ज़ल 6
अशआर 3
यूँ तो अश्कों से भी होता है अलम का इज़हार
हाए वो ग़म जो तबस्सुम से अयाँ होता है
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पत्थर भी चटख़्ते हैं तो दे जाते हैं आवाज़
दिल टूट रहे हैं तो सदा क्यूँ नहीं देते
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क्या मेरी तरह ख़ानमाँ-बर्बाद हो तुम भी
क्या बात है तुम घर का पता क्यूँ नहीं देते
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