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नातिक़ लखनवी

1878 - 1950 | लखनऊ, भारत

नातिक़ लखनवी

ग़ज़ल 25

अशआर 14

कह रहा है शोर-ए-दरिया से समुंदर का सुकूत

जिस का जितना ज़र्फ़ है उतना ही वो ख़ामोश है

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शम्अ' तुझ पे रात ये भारी है जिस तरह

मैं ने तमाम उम्र गुज़ारी है इस तरह

मर मर के अगर शाम तो रो रो के सहर की

यूँ ज़िंदगी हम ने तिरी दूरी में बसर की

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इब्तिदा से आज तक 'नातिक़' की ये है सरगुज़िश्त

पहले चुप था फिर हुआ दीवाना अब बेहोश है

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आज़ादियों का हक़ अदा हम से हो सका

अंजाम ये हुआ कि गिरफ़्तार हो गए

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पुस्तकें 4

 

चित्र शायरी 2

 

ऑडियो 6

आँसुओं से ख़ून के अजज़ा बदलते जाएँगे

ऐ शम्अ' तुझ पे रात ये भारी है जिस तरह

ख़ून-ए-दिल का जो कुछ अश्कों से पता मिलता है

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