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प्रेम वारबर्टनी

1930 - 1979 | चंडीगढ़, भारत

प्रेम वारबर्टनी

ग़ज़ल 21

नज़्म 13

अशआर 3

कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है

ज़िंदगी शाम है और शाम ढली जाए है

तुम ने लिक्खा है मिरे ख़त मुझे वापस कर दो

डर गईं हुस्न-ए-दिला-आवेज़ की रुस्वाई से

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आख़िर उस की सूखी लकड़ी एक चिता के काम आई

हरे-भरे क़िस्से सुनते थे जिस पीपल के बारे में

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क़ितआ 18

पुस्तकें 3

 

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