aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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क़सरी कानपुरी

1914 - 1996

क़सरी कानपुरी

अशआर 7

कोई मंज़िल के क़रीब के भटक जाता है

कोई मंज़िल पे पहुँचता है भटक जाने से

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ग़लत है आप का अंदाज़ा-ए-नज़र 'क़स्री'

बुरा ज़रूर हूँ पर इस क़दर बुरा भी नहीं

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जब से इक शख़्स मेरे ध्यान में है

कितनी ख़ुश्बू मिरे मकान में है

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ये कौन शख़्स है इस को ज़रा बुलाओ तो

ये मेरे हाल पे क्यूँ मुस्कुरा के गुज़रा है

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अपने काँधों से उठाए हुए हालात का बोझ

रास्ते चीख़ पड़े लोग जिधर से गुज़रे

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