रईस फ़रोग़
ग़ज़ल 32
नज़्म 32
अशआर 20
अब की रुत में जब धरती को बरखा की महकार मिले
मेरे बदन की मिट्टी को भी रंगों में नहला देना
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इश्क़ वो कार-ए-मुसलसल है कि हम अपने लिए
एक लम्हा भी पस-अंदाज़ नहीं कर सकते
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घर में तो अब क्या रक्खा है वैसे आओ तलाश करें
शायद कोई ख़्वाब पड़ा हो इधर उधर किसी कोने में
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फ़स्ल तुम्हारी अच्छी होगी जाओ हमारे कहने से
अपने गाँव की हर गोरी को नई चुनरिया ला देना
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मेरा भी एक बाप था अच्छा सा एक बाप
वो जिस जगह पहुँच के मरा था वहीं हूँ मैं
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चित्र शायरी 2
वीडियो 3
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