राजेन्द्र मनचंदा बानी के शेर
वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था
कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए
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टैग : जुदाई
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ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था
क़ाइल ही तिरी बात का अंदर से नहीं था
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टैग : दोस्त
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ओस से प्यास कहाँ बुझती है
मूसला-धार बरस मेरी जान
वो एक अक्स कि पल भर नज़र में ठहरा था
तमाम उम्र का अब सिलसिला है मेरे लिए
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कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख
एक अजनबी की तरह मैं ख़ुद अपने घर में था
'बानी' ज़रा सँभल के मोहब्बत का मोड़ काट
इक हादसा भी ताक में होगा यहीं कहीं
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टैग : हादसा
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ढलेगी शाम जहाँ कुछ नज़र न आएगा
फिर इस के ब'अद बहुत याद घर की आएगी
ज़रा छुआ था कि बस पेड़ आ गिरा मुझ पर
कहाँ ख़बर थी कि अंदर से खोखला है बहुत
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उदास शाम की यादों भरी सुलगती हवा
हमें फिर आज पुराने दयार ले आई
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आज क्या लौटते लम्हात मयस्सर आए
याद तुम अपनी इनायात से बढ़ कर आए
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टैग : याद
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दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला
मैं कि अक्स-ए-मुंतशिर एक एक मंज़र में अकेला
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टैग : तन्हाई
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अजीब तजरबा था भीड़ से गुज़रने का
उसे बहाना मिला मुझ से बात करने का
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इस क़दर ख़ाली हुआ बैठा हूँ अपनी ज़ात में
कोई झोंका आएगा जाने किधर ले जाएगा
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मिरे बनाए हुए बुत में रूह फूँक दे अब
न एक उम्र की मेहनत मिरी अकारत कर
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जाने वो कौन था और किस को सदा देता था
उस से बिछड़ा है कोई इतना पता देता था
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तू कोई ग़म है तो दिल में जगह बना अपनी
तू इक सदा है तो एहसास की कमाँ से निकल
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मैं चुप खड़ा था तअल्लुक़ में इख़्तिसार जो था
उसी ने बात बनाई वो होशियार जो था
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टैग : मुलाक़ात
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मोहब्बतें न रहीं उस के दिल में मेरे लिए
मगर वो मिलता था हँस कर कि वज़्अ-दार जो था
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न जाने कल हों कहाँ साथ अब हवा के हैं
कि हम परिंदे मक़ामात-ए-गुम-शुदा के हैं
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माज़ी से उभरीं वो ज़िंदा तस्वीरें
उतर गया सब नश्शा नए पुराने का
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टैग : माज़ी
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इस अँधेरे में न इक गाम भी रुकना यारो
अब तो इक दूसरे की आहटें काम आएँगी
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टैग : आहट
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बगूले उस के सर पर चीख़ते थे
मगर वो आदमी चुप ज़ात का था
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वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'
मगर मिरे लिए दफ़्तर खुला मआनी का
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इस तमाशे में तअस्सुर कोई लाने के लिए
क़त्ल 'बानी' जिसे होना था वो किरदार था मैं
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हरी सुनहरी ख़ाक उड़ाने वाला मैं
शफ़क़ शजर तस्वीर बनाने वाला मैं
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मिरे वास्ते जाने क्या लाएगी
गई है हवा इक खंडर की तरफ़
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कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी
सितारे छत पे रक्खे थे शिकन बिस्तर पे रक्खी थी
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वही इक मौसम-ए-सफ़्फ़ाक था अंदर भी बाहर भी
अजब साज़िश लहू की थी अजब फ़ित्ना हवा का था
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चलो कि जज़्बा-ए-इज़हार चीख़ में तो ढला
किसी तरह इसे आख़िर अदा भी होना था
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शामिल हूँ क़ाफ़िले में मगर सर में धुँद है
शायद है कोई राह जुदा भी मिरे लिए
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राह आसाँ देख कर सब ख़ुश थे फिर मैं ने कहा
सोच लीजे एक अंदाज़-ए-नज़र मेरा भी है
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टैग : सफ़र
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याद तिरी जैसे कि सर-ए-शाम
धुँद उतर जाए पानी में
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टैग : याद
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उड़ चला वो इक जुदा ख़ाका लिए सर में अकेला
सुब्ह का पहला परिंदा आसमाँ भर में अकेला
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किसी के लौटने की जब सदा सुनी तो खुला
कि मेरे साथ कोई और भी सफ़र में था
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थी पाँव में कोई ज़ंजीर बच गए वर्ना
रम-ए-हवा का तमाशा यहाँ रहा है बहुत
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पैहम मौज-ए-इमकानी में
अगला पाँव नए पानी में
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कोई गोशा ख़्वाब का सा ढूँड ही लेते थे हम
शहर अपना शहर 'बानी' बे-अमाँ ऐसा न था
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क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या
हवा बंधी थी यहाँ पीठ पर सँभलते क्या
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वो लोग जो कभी बाहर न घर से झाँकते थे
ये शब उन्हें भी सर-ए-रहगुज़ार ले आई
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दमक रहा था बहुत यूँ तो पैरहन उस का
ज़रा से लम्स ने रौशन किया बदन उस का
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बैन करती हुई सम्तों से न डरना 'बानी'
ऐसी आवाज़ें तो इस राह में आम आएँगी
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फैलती जाएगी चारों सम्त इक ख़ुश-रौनक़ी
एक मौसम मेरे अंदर से निकलता जाएगा
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सिलसिला रौशन तजस्सुस का उधर मेरा भी है
ऐ सितारो उस ख़ला में इक सफ़र मेरा भी है
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किसी मक़ाम से कोई ख़बर न आने की
कोई जहाज़ ज़मीं पर न अब उतरने का
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