राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल 75
नज़्म 13
शेर 42
वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था
कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए
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ओस से प्यास कहाँ बुझती है
मूसला-धार बरस मेरी जान
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कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख
एक अजनबी की तरह मैं ख़ुद अपने घर में था
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ढलेगी शाम जहाँ कुछ नज़र न आएगा
फिर इस के ब'अद बहुत याद घर की आएगी
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