साग़र आज़मी के शेर
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
छूट गया है साथ तुम्हारा और अभी तक ज़िंदा हूँ
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
क्या आग लगाओगे बर्फ़ीली चटानों में
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तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
ताज-महल बन जाए अगर मुम्ताज़ कहाँ से लाऊँगा
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
उस के हाथों से कभी फूल भी आया होगा
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शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
सारी ग़ज़लें बैठी होंगी अपने अपने मीर के पास
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
परवाज़ न खो जाए इन ऊँची उड़ानों में
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टैग : शोहरत
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देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया
मेरे बच्चों ने तो चाँद को छू लिया और मैं चाँद को पूजता रह गया
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ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
उस ने लिख लिख के मेरा नाम मिटाया होगा
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मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
तू मुझे चाहे मगर तुझ को ज़माना चाहे
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बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
उड़ते ही शाख़ से कई सम्तों में बट गए
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उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
जैसे पानी में कोई आग लगाना चाहे
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किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
हर दर्द अभी बाक़ी है हर ज़ख़्म अभी ताज़ा है
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फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
शीशे के हैं दरवाज़े पत्थर की दुकानों में
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