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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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सलीम अंसारी

1962 | जालंधर, भारत

सलीम अंसारी के दोहे

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जुर्म-ए-मोहब्बत की मिली हम को ये पादाश

अपने काँधे पर चले ले कर अपनी लाश

आँगन के इक पेड़ की ठंडी मीठी छाँव

शहर में जैसे गया चल कर मेरा गाँव

मेरे चारों ओर थे तरह तरह के लोग

फिर भी मुझ को लग गया तंहाई का रोग

रातें जंगल की तरह और दिन रेगिस्तान

मेरी जीवन यात्रा कैसे हो आसान

इस से बढ़ कर और क्या रिश्तों पर दुश्नाम

भाई आया पूछने मुझ से मेरा नाम

ख़ुश-फ़हमी की धूप में रौशन झूटी आस

अँधियारे में रेंगता हर सच का विश्वास

मैं ने जिस की आँख से देखे अपने ख़्वाब

अब उस का एहसास भी मेरे लिए अज़ाब

मंदिर मस्जिद तोड़िए लेकिन रहे ख़याल

शीशे में विश्वास के पड़ जाए बाल

रफ़्ता रफ़्ता घुल गई मेरी सोच की बर्फ़

यानी मैं ख़ुद हो गया अपने हाथों सर्फ़

सूरज डूबा और फिर उतरे काले साए

पेड़ों की आवाज़ पर पंछी वापस आए

यादों के सरमाए पर ख़ुद से माँगूँ ब्याज

यूँ अपनी तंहाई का जश्न मनाऊँ आज

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