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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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संदीप गुप्ते

1961 | भोपाल, भारत

संदीप गुप्ते

ग़ज़ल 9

अशआर 17

दुल्हन की मेहंदी जैसी है उर्दू ज़बाँ की शक्ल

ख़ुशबू बिखेरता है इबारत का हर्फ़ हर्फ़

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मैं तुम्हारे शहर की तहज़ीब से वाक़िफ़ था

पत्थरों से की नहीं थी गुफ़्तुगू पहले कभी

हमें क़ुबूल नहीं छोटा मुँह बड़ी बातें

मिसाल बनते हैं और फिर मिसाल देते हैं

ग़ज़ल में जब तलक एहसास की शिद्दत हो शामिल

फ़क़त अल्फ़ाज़ की कारीगरी महसूस होती है

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कोई भी शख़्स दुनिया में तुम्हें छोटा नज़र आए

तुम अपने सोचने का दायरा इतना बड़ा कर लो

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