शारिक़ कैफ़ी के शेर
घर में ख़ुद को क़ैद तो मैं ने आज किया है
तब भी तन्हा था जब महफ़िल महफ़िल था मैं
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टैग : सोशल डिस्टेन्सिंग शायरी
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रात थी जब तुम्हारा शहर आया
फिर भी खिड़की तो मैं ने खोल ही ली
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वो बात सोच के मैं जिस को मुद्दतों जीता
बिछड़ते वक़्त बताने की क्या ज़रूरत थी
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अब मुझे कौन जीत सकता है
तू मिरे दिल का आख़िरी डर था
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हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम
उसे कैसे लगे रोते हुए हम
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कौन कहे मा'सूम हमारा बचपन था
खेल में भी तो आधा आधा आँगन था
कौन था वो जिस ने ये हाल किया है मेरा
किस को इतनी आसानी से हासिल था मैं
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कैसे टुकड़ों में उसे कर लूँ क़ुबूल
जो मिरा सारे का सारा था कभी
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सब आसान हुआ जाता है
मुश्किल वक़्त तो अब आया है
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टैग : वक़्त
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कहाँ सोचा था मैं ने बज़्म-आराई से पहले
ये मेरी आख़िरी महफ़िल है तन्हाई से पहले
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झूट पर उस के भरोसा कर लिया
धूप इतनी थी कि साया कर लिया
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टैग : भरोसा
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मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली
ऐसा मरने का माहौल बनाया हम ने
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फ़ासला रख के भी क्या हासिल हुआ
आज भी उस का ही कहलाता हूँ मैं
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नया यूँ है कि अन-देखा है सब कुछ
यहाँ तक रौशनी आती कहाँ थी
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आओ गले मिल कर ये देखें
अब हम में कितनी दूरी है
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सारी दुनिया से लड़े जिस के लिए
एक दिन उस से भी झगड़ा कर लिया
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दुनिया शायद भूल रही है
चाहत कुछ ऊँचा सुनती है
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जिन पर मैं थोड़ा सा भी आसान हुआ हूँ
वही बता सकते हैं कितना मुश्किल था मैं
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अचानक हड़बड़ा कर नींद से मैं जाग उट्ठा हूँ
पुराना वाक़िआ है जिस पे हैरत अब हुई है
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वहाँ ईद क्या वहाँ दीद क्या
जहाँ चाँद रात न आई हो
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टैग : ईद
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ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है
आँख खुल जाए तो मुसीबत है
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टैग : ख़्वाब
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बहुत भटके तो हम समझे हैं ये बात
बुरा ऐसा नहीं अपना मकाँ भी
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अभी तो अच्छी लगेगी कुछ दिन जुदाई की रुत
अभी हमारे लिए ये सब कुछ नया नया है
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मैं किसी दूसरे पहलू से उसे क्यूँ सोचूँ
यूँ भी अच्छा है वो जैसा नज़र आता है मुझे
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पता नहीं ये तमन्ना-ए-क़ुर्ब कब जागी
मुझे तो सिर्फ़ उसे सोचने की आदत थी
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बहुत हसीं रात है मगर तुम तो सो रहे हो
निकल के कमरे से इक नज़र चाँदनी तो देखो
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कम से कम दुनिया से इतना मिरा रिश्ता हो जाए
कोई मेरा भी बुरा चाहने वाला हो जाए
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पहली बार वो ख़त लिक्खा था
जिस का जवाब भी आ सकता था
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टैग : ख़त
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बहुत गदला था पानी उस नदी का
मगर मैं अपना चेहरा देख आया
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लरज़ते काँपते हाथों से बूढ़ा
चिलम में फिर कोई दुख भर रहा था
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बहुत हिम्मत का है ये काम 'शारिक़'
कि शरमाते नहीं डरते हुए हम
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भीड़ में जब तक रहते हैं जोशीले हैं
अलग अलग हम लोग बहुत शर्मीले हैं
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किस तरह आए हैं इस पहली मुलाक़ात तलक
और मुकम्मल है जुदा होने की तय्यारी भी
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रुका महफ़िल में इतनी देर तक मैं
उजालों का बुढ़ापा देख आया
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यही कमरा था जिस में चैन से हम जी रहे थे
ये तन्हाई तो इतनी बे-मुरव्वत अब हुई है
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एक दिन हम अचानक बड़े हो गए
खेल में दौड़ कर उस को छूते हुए
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पता था मुझ को मुलाक़ात ग़ैर-मुमकिन है
सो तेरा ध्यान किया और गुलाब चूम लिया
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बीनाई भी क्या क्या धोके देती है
दूर से देखो सारे दरिया नीले हैं
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टैग : बीनाई
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गुफ़्तुगू कर के परेशाँ हूँ कि लहजे में तिरे
वो खुला-पन है कि दीवार हुआ जाता है
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वो बस्ती ना-ख़ुदाओं की थी लेकिन
मिले कुछ डूबने वाले वहाँ भी
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तसल्ली अब हुई कुछ दिल को मेरे
तिरी गलियों को सूना देख आया
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ख़मोशी बस ख़मोशी थी इजाज़त अब हुई है
इशारों को तिरे पढ़ने की जुरअत अब हुई है
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ये सच है दुनिया बहुत हसीं है
मगर मिरी उम्र की नहीं है
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फ़ैसले औरों के करता हूँ
अपनी सज़ा कटती रहती है
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हो सबब कुछ भी मिरे आँख बचाने का मगर
साफ़ कर दूँ कि नज़र कम नहीं आता है मुझे
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अजब लहजे में करते थे दर ओ दीवार बातें
मिरे घर को भी शायद मेरी आदत अब हुई है
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एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए
अपने माहौल में ख़ुद को देखे हुए
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उम्र भर किस ने भला ग़ौर से देखा था मुझे
वक़्त कम हो तो सजा देती है बीमारी भी
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क़ुर्ब का उस के उठा कर फ़ाएदा
हिज्र का सामाँ इकट्ठा कर लिया
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कभी ख़ुद को छू कर नहीं देखता हूँ
ख़ुदा जाने किस वहम में मुब्तला हूँ
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