शेर सिंह नाज़ देहलवी
ग़ज़ल 20
अशआर 7
आबला-पाई हमारी रंग लाई दश्त में
ख़ार-ए-सहरा तिश्ना-ए-ख़ूँ हो के नश्तर हो गए
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बल पड़े चितवन पे अबरू तन के ख़ंजर हो गए
ज़िक्र-ए-वस्ल आते ही वो जामे से बाहर हो गए
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रो दिए फ़रियाद पर मेरी बुतान-ए-संग-दिल
मेरे नालों से पिघल कर मोम पत्थर हो गए
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इक बहाना चाहिए उन को बिगड़ने के लिए
मैं ने ज़ुल्फ़ों की बलाएँ लीं मिरे सर हो गए
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