सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल 38
अशआर 47
ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है
बिछाया है क़मर ने चाँदनी का फ़र्श महफ़िल में
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है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
शहद ओ शकर पे टूट पड़े रोज़ा-दार आज
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वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
काम कुछ हम को न मस्जिद से न बुत-ख़ाने से
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ईद के दिन जाइए क्यूँ ईद-गाह
जब कि दर-ए-मय-कदा वा हो गया
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साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
हिज्राँ से वस्ल में है सिवा दिल की एहतियात
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