ताबिश देहलवी के शेर
अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
कि तुझ को पा के हमें फिर तिरी तमन्ना है
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छोटी पड़ती है अना की चादर
पाँव ढकता हूँ तो सर खुलता है
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शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
तेरे लिए सरापा आदाब हो गए हम
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टैग : बंदगी
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ज़र्रे में गुम हज़ार सहरा
क़तरे में मुहीत लाख क़ुल्ज़ुम
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होती ही नहीं सुब्ह-ए-क़यामत भी नुमूदार
जागेंगे शब-ए-हिज्र के बीमार कहाँ तक
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टैग : हिज्र
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हर रास्ते से मंज़िल-ए-हस्ती है बहुत दूर
जाएगा मिरे साथ ग़म-ए-यार कहाँ तक
हर रोज़ इक आवाज़ा अनल-हक़ का लगाएँ
देखें तो कि है सिलसिला-ए-दार कहाँ तक
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टैग : दार
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