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विजय शर्मा

1995 | दिल्ली, भारत

नई पीढ़ी के शायरों में शुमार

नई पीढ़ी के शायरों में शुमार

विजय शर्मा

ग़ज़ल 20

नज़्म 1

 

अशआर 8

नई नहीं है ये तन्हाई मेरे हुजरे की

मरज़ हो कोई भी है चारागर से डर जाना

'अर्श' बहारों में भी आया एक नज़ारा पतझड़ का

सब्ज़ शजर के सब्ज़ तने पर इक सूखी सी डाली थी

ज़िंदगी कभी इंकार का सबब भी सुन

मैं थक गया हूँ तेरी हाँ में हाँ मिलाते हुए

क्यूँ तश्बीह फूल हो उस की

वो जो ख़ुशबू सा दास्तान में है

दश्त की ना-तमाम राहों पर

कोई साथी है तो शजर तन्हा

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