विपुल कुमार
ग़ज़ल 24
अशआर 23
इक रोज़ खेल खेल में हम उस के हो गए
और फिर तमाम उम्र किसी के नहीं हुए
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उस हिज्र पे तोहमत कि जिसे वस्ल की ज़िद हो
उस दर्द पे ला'नत की जो अशआ'र में आ जाए
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हर मुलाक़ात पे सीने से लगाने वाले
कितने प्यारे हैं मुझे छोड़ के जाने वाले
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इतना हैरान न हो मेरी अना पर प्यारे
इश्क़ में भी कई ख़ुद्दार निकल आते हैं
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इक दिन तिरी गली में मुझे ले गई हवा
और फिर तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही
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