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वलीउल्लाह मुहिब

- 1792 | लखनऊ, भारत

वलीउल्लाह मुहिब

ग़ज़ल 48

अशआर 67

अश्क-बारी से ग़म-ओ-दर्द की खेती-बाड़ी

लहलही सी नज़र आती है हरी रहती है

उस के कूचे ही में निकलूँ हूँ जाऊँ जिस तरफ़

मैं तो दीवाना हूँ अपने इस दिल-ए-गुमराह का

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का'बे में वही ख़ुद है वही दैर में है आप

हिन्दू कहो या उस को मुसलमान वही है

काबा जाने की हवस शैख़ हमें भी है वले

कूचा-ए-यार क़यामत है हवा-दार अज़ीज़

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दोस्ती छूटे छुड़ाए से किसू के किस तरह

बंद होता ही नहीं रस्ता दिलों की राह का

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