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वक़ार मानवी

1939 | दिल्ली, भारत

वक़ार मानवी

ग़ज़ल 18

अशआर 12

बहुत से ग़म छुपे होंगे हँसी में

ज़रा इन हँसने वालों को टटोलो

हमारी ज़िंदगी कहने की हद तक ज़िंदगी है बस

ये शीराज़ा भी देखा जाए तो बरहम है बरसों से

ग़रीब को हवस-ए-ज़िंदगी नहीं होती

बस इतना है कि वो इज़्ज़त से मरना चाहता है

सलीक़ा बोलने का हो तो बोलो

नहीं तो चुप भली है लब खोलो

कहाँ मिलेगी भला इस सितमगरी की मिसाल

तरस भी खाता है मुझ पर तबाह कर के मुझे

पुस्तकें 10

 

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