गूँगी मुहब्बत
स्टोरीलाइन
एक गूंगी लड़की की गूंगी मोहब्बत की कहानी। ज्योति आर्ट की शौक़ीन इंदिरा की ख़ादिमा है। एक आर्ट की नुमाइश के दौरान इंदिरा की मुलाकात मोहन से होती है और वह दोनों शादी कर लेते हैं। एक रोज़ जब इंदिरा को पता चलता है कि उसकी ख़ादिमा ज्योति भी मोहन से मोहब्बत करती है तो वह उसे छोड़कर चली जाती है।
वो दोनों जवान थीं और ज़ाहिर है कि जवानी की बहार-आफ़रीनी हर निस्वानी पैकर के ख़द्द-ओ-ख़ाल में एक ख़ास शगुफ़्तगी और एक ख़ास दिल-आवेज़ी पैदा कर देती है... चुनाँचे वो दोनों हसीन भी थीं। दोनों के क़द भी क़रीबन-क़रीबन यकसाँ थे। दोनों की उ'म्रों में भी कोई ख़ास फ़र्क़ न था। एक की उ'म्र सोलह साल के क़रीब होगी और दूसरी की सत्रह या अठारह के लगभग।
मगर इन चीज़ों के बा-वजूद दोनों में बहुत बड़ा फ़र्क़ था। एक को फ़ितरतन हक़ हासिल था कि वो ख़ूब हँसे और हर वक़्त हँसती रहे और दूसरी दुनिया में सिर्फ़ इस ग़रज़ से पैदा हुई थी कि वो ख़्वाह हँसे या रोए लेकिन दूसरों को ज़रूर हँसाए। एक इशारों में अहकाम सादर करती थी और दूसरी उन अहकाम की बे-चून-ओ-चरा ता'मील कर देती थी और सबसे बढ़कर ये एक की ज़बान उसके मुँह में थी और दूसरी की ज़बान उसके हाथों के इशारों में।
एक का नाम था इंदिरा... काग़ज़ की एक मशहूर फ़र्म के वाहिद मालिक सेठ बद्रीप्रशाद की इकलौती बेटी... दूसरी का नाम था ज्योती... लेकिन ये नाम एक शख़्स भी न जानता था। आख़िर एक गूँगी लड़की का नाम मा'लूम करने की ज़रूरत भी क्या है? जिस तरह हर शख़्स गूँगी के नाम से वाक़िफ़ था। उसी तरह वो ये भी नहीं जानता था कि वो किस ख़ानदान से तअ'ल्लुक़ रखती है और उसके वालिदैन कौन थे। इंदिरा ने दो एक-बार उसके ख़ानदानी हालात मा'लूम करने की मा'मूली कोशिश की। मगर जब देखा कि इस सिलसिले में हर कोशिश फ़ुज़ूल है। तो उसने जाँच पड़ताल करने का इरादा ही दिल से निकाल दिया।
कोई औ'रत भी ख़ास तौर पर अपनी ख़ादिमा के ख़ानदानी हालात मा'लूम करने के लिए ज़ियादा तग-ओ-दव नहीं करती। फिर इंदिरा को क्या पड़ी थी कि वो अपनी गूँगी ख़ादिमा के हालात दरियाफ़्त करती? उसके लिए यही काफ़ी था कि उसके घर में एक गूँगी लड़की ज़िंदगी के दिन गुज़ार रही है जो उसकी ख़ादिमा भी है और ज़रीआ-ए-तफ़रीह भी।
दोनों की पहली मुलाक़ात अ'जीब अंदाज़ में हुई थी...।
एक दिन इंदिरा कॉलेज से वापिस आई तो उसने देखा कि गली के एक हिस्से में चंद औरतें और बच्चे खड़े हँस रहे हैं। वो वहाँ पहुँची तो मा'लूम हुआ कि एक गूँगी भिकारन हुजूम में खड़ी घबरा रही है। जब इंदिरा ने गूँगी के मुतअ'ल्लिक़ कुछ दरियाफ़्त किया तो मा'लूम हुआ कि उसके वालिदैन बचपन में फ़ौत हो गए थे और अब वो अपने दूर के एक रिश्तेदार के साथ भीक माँग- माँग कर अपना पेट पालती है... ये दूर का रिश्तेदार एक बूढ़ा था जो उसके साथ ही खड़ा था।
इंदिरा ने बूढ़े से कहा कि वो किसी दिन गूँगी को उसके मकान पर लाए। वो “गूँगी” से “बातें” करना चाहती है।
बूढ़ा पागल था। जो उस ज़रीं मौके़ से फ़ाएदा न उठाता? वो दूसरे ही दिन गूँगी को सेठ बद्रीप्रशाद के आ'ली-शान मकान पर ले आया।
चंद लम्हों के बा'द घर के लोग उसके इर्द-गिर्द खड़े थे।
अब गूँगी है कि कमरे की हर चीज़ को बड़ी हैरत से देख रही है और लोग हैं कि उसकी हर हरकत से लुत्फ़-अंदोज़ हो रहे हैं। इंदिरा तो उसकी हरकात से इस क़दर महज़ूज़ हुई कि उसने बूढ़े से कह दिया
“अगर तुम्हें कोई ए'तिराज़ न हो तो गूँगी को यहीं रहने दो। इसके तमाम इख़राजात की ज़िम्मेदारी हम पर आएद होगी। तुम्हारे गुज़ारे के लिए भी कुछ न कुछ माहाना दे दिया करेंगे।”
बूढ़े ने ये बात ब-खु़शी मान ली और गूँगी इंदिरा के यहाँ रहने लगी।
उसे वहाँ रहते अभी चंद ही माह गुज़रे होंगे कि वो घर की फ़िज़ा से पूरी तरह मानूस हो गई। अब न तो उसे इशारों के ज़रीए अपना माफ़ी-अज़-ज़मीर बताने में कोई दिक़्क़त महसूस होती थी और न घर वालों को इसके इशारों का मफ़हूम समझने में किसी तकलीफ़ का सामना करना पड़ता था।
गूँगी में जहाँ और ख़ूबियाँ थीं। वहाँ ये ख़ूबी भी थी कि वो घर कि हर फ़र्द का दिल-ओ-जान से एहतिराम करती थी। ये ख़ूबी किसी और ख़ादिमा में होती तो घर के लोग उसकी बहुत क़द्र करते मगर ना-मा'लूम क्या बात थी कि इन तमाम ख़ूबियों के बा-वजूद गूँगी को... सिर्फ़ गूँगी ही समझा जाता था और गूँगी समझते वक़्त समझने वालों की निगाहों के सामने उसकी “मज़हका-ख़ेज़ हरकात” होती थीं, ख़ूबियाँ नहीं।
इंदिरा उसकी ख़ूबियों से काफ़ी मुतअस्सिर थी और जब वो उससे बातें करती तो सब कुछ भूल कर उसे महज़ एक ज़रीआ-ए-तफ़रीह समझने लगती। ताहम गूँगी को इसकी कोई शिकायत न थी... कोई शिकवा न था।
(2)
आम ता'लीम-याफ़्ता और रौशन ख़याल अमीर-ज़ादियों की तरह इंदिरा को भी फ़ुनून-ए-लतीफ़ा से दिलचस्पी थी। बिल-ख़ुसूस फ़न-ए-मुसव्विरी में तो उसकी दिलचस्पी का ये आ'लम था कि किसी आ'ला पाए की तस्वीर के हिस्सों में अगर उसे बड़ी से बड़ी रक़म भी सर्फ़ करना पड़ती थी तो वो बे-दरेग़ सर्फ़ कर देती थी। चुनाँचे यही वज्ह थी कि जब उसने अख़बारात में एक शानदार नुमाइश का ऐ'लान पढ़ा तो उसकी ख़ुशी की कोई इंतिहा न रही... अख़बारात में जो ऐ'लान शाया’ हुआ था। उसमें दर्ज था कि नुमाइश-गाह में जाँ-मरहूम मुसव्विरों की तस्वीरें दिखाई जाएँगी वहाँ पब्लिक को मुल्क के मौजूदा मुसव्विरों के ख़ास कारनामों से भी रू-शनास कराया जाएगा।
इस ऐ'लान ने इंदिरा के दिल-ओ-दिमाग़ में एक हैजान बरपा कर दिया और वो बड़ी बे-ताबी से दिसंबर के आख़िरी हफ़्ते का इंतिज़ार करने लगी।
ख़ुदा-ख़ुदा करके इंतिज़ार की कठिन घड़ियाँ ख़त्म हुईं। इंदिरा नुमाइश के पहले रोज़ ही अपनी चंद सहेलियों और गूँगी को साथ ले कर नुमाइश-गाह में पहुँच गई और सबसे पहले उसने आर्ट गैलरी ही की तरफ़ क़दम बढ़ाया। उसकी सहेलियाँ तो चंद मिनट में चंद तस्वीरों का जाएज़ा लेने के बा'द कुर्सियों पर बैठ गईं। मगर इंदिरा हर तस्वीर को इस दिलचस्पी और इस महवियत से देख रही थी कि मा'लूम होता था शाम तक वो किसी और तरफ़ तवज्जोह ही नहीं करेगी। यकायक उसे महसूस हुआ कि वो इन तमाम तस्वीरों को देख चुकी है। जो आर्ट गैलरी में मौजूद हैं... एक ख़ास हसरत के अंदाज़ में उसने आख़िरी तस्वीर से निगाहें हटाईं और अपनी सहेलियों के पास आ बैठी।
अभी उसे बैठे एक मिनट ही गुज़रा होगा कि उसकी एक सहेली बोली, “तुम तो ख़ैर आर्ट की हो ही बड़ी दिल-दादा। लेकिन तुम्हारी गूँगी आर्ट-परस्ती में तुमसे भी दो क़दम आगे निकल गई है।”
इंदिरा हैरत से अपनी सहेली को देखने लगी। सहेली ने उसका हाथ पकड़ा और उसे एक कोने में ले गई। अब इंदिरा ने देखा कि ख़ुदा की वो अ'जीब मख़लूक़... गूँगी बड़ी दिलचस्पी से एक तस्वीर देख रही है।
“क्यों न हो, आख़िर मुलाज़िमा किस की है?”, उसकी सहेली बोली।
इंदिरा ने आगे बढ़कर अपना हाथ गूँगी के कंधे पर रख दिया। गूँगी पलटी और जिस तरह बुझते हुए चराग़ की रौशनी मद्धम पड़ती जाती है, उसी तरह उसकी आँखों की रौशनी ग़ाइब होने लगी।
इंदिरा ने गूँगी के चेहरे से नज़रें हटाकर तस्वीर को देखा... और ये देखकर उसे हैरत भी हुई और मसर्रत भी कि ये तस्वीर गैलरी की बेहतरीन तस्वीर है। ऐसी तस्वीर उसने अपनी तमाम उ'म्र में नहीं देखी थी। वो दिल ही दिल में गूँगी का शुक्रिया अदा करने लगी कि उसी की वज्ह से वो ऐसी कामयाब तस्वीर देख रही थी। वर्ना वो तो ब-ज़ोम-ए-ख़्वेश तमाम तस्वीरें देखकर वापिस जा रही थी।
उस तस्वीर में रंगों के निहायत दिल-आवेज़ इम्तिज़ाज से दिखाया गया था कि एक अंधी लड़की एक नौजवान के पाँव पर इस तरह गिर पड़ी है कि उसकी बाँहें अपने महबूब की टाँगों के गिर्द हमाइल हो गई हैं।
तस्वीर के नीचे लिखा। “एक राज़ का इन्किशाफ़।”
उस तस्वीर ने इंदिरा को बहुत मुतअस्सिर किया था और वो चाहती थी कि मुसव्विरी के इस बे-नज़ीर नमूने को हर वक़्त देखती रहे... हर घड़ी देखती रहे। आख़िर उसने नुमाइश-गाह के मुंतज़िम से मुसव्विर का नाम और पता पूछा और घर रवाना हो गई।
एक हफ़्ते के बा'द एक नौजवान जिसके लिबास से ग़ुर्बत टपक रही थी, इंदिरा के सामने खड़ा था।
“क्या आपका नाम दीपक है और आप ही के मू-क़लम की मोजिज़ा-असर जुम्बिशों का नतीजा है। एक राज़ का इन्किशाफ़?”, इंदिरा ने उससे पूछा।
“जी हाँ मेरा ही नाम दीपक है। ज़र्रा-नवाज़ी का शुक्र-गुज़ार हूँ। मैं समझता हूँ उसमें कोई ख़ास ख़ूबी मौजूद नहीं है। यही वज्ह है कि किसी शख़्स ने भी उस तस्वीर को ख़रीदना तो एक तरफ़ रहा उसकी ता'रीफ़ में भी दो लफ़्ज़ नहीं कहे। मैं मायूस हो चुका था। मगर अब ये देखकर कि दुनिया में मेरे आर्ट के भी क़द्र-दान मौजूद हैं। मेरी हिम्मत बँध गई है... ग़ालिबन आपने नुमाइश गाह के मुंतज़िम से तस्वीर ख़रीदने का इरादा ज़ाहिर किया था।”, मुसव्विर ने सब कुछ एक ही साँस में कह दिया।
“हाँ मैं उस तस्वीर को ख़रीदना चाहती हूँ। मगर मुंतज़िम से नहीं ख़रीदूँगी। अगर आप इसे अपनी तौहीन न समझें तो मैं अ'र्ज़ कर दूँ कि ये तस्वीर मैं बराह-ए-रास्त मुसव्विर से हासिल करने का शरफ़ हासिल करूँगी।
फ़र्त-ए-मसर्रत से मुसव्विर का चेहरा सुर्ख़ हो गया।
“हाँ मैं एक और बात पूछना चाहती हूँ। आपको मा'लूम हो चुका है कि मुझे फ़न-ए-मुसव्विरी से बड़ी दिलचस्पी है। आज तक तस्वीरों को फ़राहम कर-कर के अपना शौक़ पूरा करती रही। अब मेरी आरज़ू ये है कि ख़ुद भी काग़ज़ को दाग़-दार बनाने की कोशिश किया करूँ... अगर आपको कोई उ'ज़्र न हो तो पिताजी से दरियाफ़्त कर लूँ?”
“मैं आपका मफ़हूम नहीं समझ सका। मुआ'फ़ कीजिएगा मुसव्विर ने घबराहट में कहा
“आप समझ गए हैं... फ़न-ए-मुसव्विरी में आप मेरे उस्ताद होंगे”
“मुझे इसमें कोई उ'ज़्र नहीं!”
“तो चलिए पिताजी के पास!”, इंदिरा ने मुस्कुरा कर कहा।
भला सेठ बद्रीप्रशाद अपनी इकलौती बेटी की ख़्वाहिश को रद्द कर सकता था?
(3)
मुसव्विर दीपक हर-रोज़ वक़्त-ए-मुक़र्ररा पर कोठी में आता और अपना फ़र्ज़ पूरा करके चला जाता... कई हफ़्ते गुज़र गए और इस मुद्दत में बे-तकल्लुफ़ी तो रही एक तरफ़ उसने बग़ैर किसी शदीद ज़रूरत के किसी से बात भी न की। इसके बा-वजूद कोठी में एक ऐसी हस्ती भी मौजूद थी जो किसी न किसी हद तक उससे बे-तकल्लुफ़ हो गई थी... या बे-तकल्लुफ़ होती जा रही थी और वो हस्ती थी गूँगी ज्योती।
दीपक, जैसा कि एक मुसव्विर को होना चाहिए, बहुत संजीदा इंसान था। ताहम जब गूँगी उसके सामने आकर अ'जीब-अ'जीब मज़हका-ख़ेज़ हरकतें करने लगती तो वो बे-इख़्तियार हँस पड़ता और गूँगी भी उसके साथ हँसने लगती।
इंदिरा को जब काम से फ़ुर्सत मिल जाती और दीपक भी फ़ारिग़ हो जाता तो दोनों देर तक गूँगी के इशारों से महज़ूज़ होते रहते... गूँगी के क़हक़हों से भी मा'लूम होता था कि ये क़ुव्वत-ए-गोयाई से महरूम हस्ती अपनी महरूमी-ओ-बेचारगी को यकसर फ़रामोश कर चुकी है... उसे अपने गूँगेपन का ज़र्रा भर भी अफ़सोस नहीं और इस पर इंदिरा और दीपक दोनों इज़हार हैरत करते रहते थे।
गूँगी के सपुर्द घर के कई काम काज थे। ताहम वो दीपक की आमद से पेशतर तमाम फ़राइज़ पूरे करके इंदिरा के कमरे में पहुँच जाती और जब तक दीपक वहाँ मौजूद रहता वो चुप-चाप कोच पर बैठी रहती।
दीपक कई रोज़ से एक तस्वीर बना रहा था और उस तस्वीर का मॉडल थी इंदिरा।
जब तस्वीर मुकम्मल हो गई तो गूँगी भी अपनी तस्वीर की आरज़ू का इज़हार करने लगी।
गूँगी कई दिन से अपनी आरज़ू का इज़हार कर रही थी... जब दीपक आता तो वो उसके सामने स्टूल पर बैठ कर इस तरह ख़ामोश हो जाती गोया वो मॉडल है। इस पर इंदिरा भी हँस पड़ती और दीपक भी।
उन्ही दिनों अचानक इंदिरा की तबीअ'त अ'लील हो गई। अब दीपक का काम ये था कि दिन के किसी हिस्से में इंदिरा के यहाँ आए और उसकी हालत देखकर वापिस चला जाए।
ज्योती एक तरफ़ तो रात के दो-दो बजे तक अपनी मालिका की ख़बर-गीरी करती रहती थी और दूसरी तरफ़ ना-मा'लूम क्यों उसकी फ़ितरी शोख़ी ग़ाइब होती जा रही तही। वो अब भी हँसती थी। मगर ये हँसी फीकी-फीकी मा'लूम होती थी। वो अब भी दीपक के साथ इशारों में बातें करती थी। लेकिन एक झिजक... एक ख़ास हिचकिचाहट के साथ।
बाज़-औक़ात रात को इंदिरा की आँख अचानक खुल जाती थी तो वो देखती थी कि ज्योती कोच पर बैठी, फ़र्श पर पड़ी हुई अँगीठी की चिंगारियों को एक ख़ास महवियत के साथ देख रही है। उसने गूँगी से इस तबदीली की वज्ह पूछने की कोशिश की मगर अव्वल तो गूँगी अपनी मालिका का मफ़हूम ही नहीं समझ सकती थी। तो ज़रा मुस्कुरा कर ख़ामोश हो जाती थी।
एक दिन इंदिरा ने दीपक से कहा, “शायद हमारी गूँगी हमसे नाराज़ है, देखिए तो आज कल कुछ ख़ामोश और अफ़्सुर्दा सी रहती है। उसकी तस्वीर बना दीजिए ना!”
“बस इसी बात पर ख़फ़ा हो गई है?”, दीपक ने हँस कर कहा और दूसरे दिन जब वो आया तो ज्योती का हाथ पकड़ कर उसे स्टूल की तरफ़ ले गया। ज्योती समझ गई। उसकी आँखों में चमक सी पैदा हो गई... एक ऐसी चमक जो बुझती हुई चिंगारी के एक दम रौशन हो जाने से पैदा हो जाती है। लेकिन दूसरे ही लम्हे में चमक दूर हो गई। दीपक ने देखा कि गूँगी ब-सूरत-ए-इंकार अपना सर हिला रही है। दीपक ने बहुतेरी कोशिश की कि वो स्टूल पर बैठी रहे। लेकिन गूँगी उठकर चली गई। इंदिरा ने भी उसे समझाने की कोशिश की। मगर गूँगी अपनी ज़िद पर ब-दस्तूर क़ाएम रही।
इंदिरा कहने लगी..., “बे-चारी कई रोज़ से कह रही थी मेरी ख़ूबसूरत तस्वीर बना दो। मगर आपने तवज्जोह ही न की। गोया उसका मुतालिबा अपने अंदर कोई ताक़त ही नहीं रखता। बे-चारी ख़फ़ा न हो जाती तो और क्या करती!”
इंदिरा ने ये लफ़्ज़ बड़ी हम-दर्दी से कहे। दीपक बोला, “उसकी ख़ूबसूरत तस्वीर का तो क्या ज़िक्र। ये ख़ुद भी ख़ूबसूरत है। अगर बेचारी गूँगी न होती तो न मा'लूम कितनी निगाहों का मर्कज़ बन चुकी होती।”
इंदिरा ने उसका कोई जवाब न दिया।
दूसरे दिन ज्योती ख़ास तौर पर अफ़्सुर्दा थी। इंदिरा ने उसे ख़ुद स्टूल पर बिठा दिया..., यक-लख़्त गूँगी का चेहरा शगुफ़्ता हो गया और वो सर झुका कर बैठ गई।
ज्योती की तस्वीर बनने लगी।
जब तक वो स्टूल पर बैठी रहती थी ऐसी हरकतें करती रहती थी गोया बहुत परेशान है... दो तीन दिन के बा'द उसकी तबीअ'त में सुकून पैदा हो गया और अब वो दीपक के मना’ करने के बा-वजूद उसके चेहरे को टक-टकी बाँध कर देखती रहती थी।
तस्वीर मुकम्मल हो गई... अपनी तस्वीर देखकर उसकी बाछें खिल गईं।
चंद हफ़्ते गुज़र गए। इंदिरा सेहत-याब हो कर दीपक की ज़ेर-ए-हिदायत कोई नई तस्वीर बनाने लगी।
ज्योती की तबीअ'त में फिर तबदीली पैदा हो गई थी। अब वो फिर हर वक़्त परेशान नज़र आती थी। पहले उससे मज़हका-ख़ेज़ हरकतें होती थीं तो वो दूसरों के साथ ख़ुद भी हँस पड़ती थी। अब वो भी उस क़िस्म की हरकतें करती थी मगर उसकी हरकतों से मा'लूम होता था कि वो खोई-खोई सी है।
घर में उसकी अफ़्सुर्दगी के मुतअ'ल्लिक़ दो वुजूह पेश किए जाते थे। दीपक का ख़याल था कि उसे अपने वालिदैन और रिश्तेदारों की याद सता रही है और इंदिरा का ख़याल था कि अब उसे अपनी बेचारगी का शदीद एहसास पैदा हो गया। यही वज्ह है कि वो हर घड़ी ग़म-गीं दिखाई देती है।
एक दिन ज्योती इंदिरा के ड्राइंगरूम में जाकर दीपक की तस्वीर देख रही थी। यकायक एक हाथ उसके शाने पर लगा। उसने मुड़कर देखा और बे-इख़्तियार हो कर दीपक के हाथ को ज़ोर से पकड़ लिया।
दीपक ने क़हक़हा लगाकर कहा, “डर गई है, बेचारी!”
“देख क्या रही थी...?”, इंदिरा ने पूछा...।
“तुम्हारी तस्वीर... पगली हर वक़्त खोई-खोई रहती है। कल अपनी तस्वीर देख रही थी।”
“आख़िर उसकी परेशानी की वज्ह क्या है?”
“मैं ख़ुद भी नहीं जानती...!”, इंदिरा ने जवाब दिया। ज्योती चली गई।
“इंदिरा उसके बावा को ढूँढो... मुम्किन है उसकी जुदाई में मग़्मूम हो।”
दोनों कमरे से बाहर निकल आए... ज्योती दीवार से लग कर खड़ी थी और अँगूठे के नाख़ुन से चूना खुरच रही थी!
(4)
गूँगी ने लाख कोशिश की कि अपने दिल से इस ख़ौफ़नाक जज़्बे को निकाल दे। जिसका ज़हर लम्हा-ब-लम्हा बिखरता चला जा रहा था। लेकिन ऐसा न हो सका। उसका मा'सूम दिल और इसका दिमाग़ ज़ंजीरों में जकड़ दिया गया था। इन ज़ंजीरों को तोड़ना उसके लिए बस की बात न थी। वो रात को बिस्तर पर लेटती तो दिल में अहद कर लेती कि अब सुब्ह हरगिज़ इंदिरा के कमरे में नहीं जाएगी... अब हरगिज़ दीपक की सूरत नहीं देखेगी। मगर जब सुब्ह होती तो एक जज़्बा बे-इख़्तियार उसे कशाँ-कशाँ उस जगह ले जाता। जहाँ चमकती हुई दो बड़ी-बड़ी आँखें उसे इस तरह महसूर कर लेतीं। जिस तरह साँप की आँखें परिंदे को महसूर कर लेती हैं। उसका हर इरादा दम तोड़ देता। उस वक़्त उसकी हालत उस परिंदे की सी हो जाती जिसके पर शिकस्ता हों और जो इंतिहाई बेचारगी के आ'लम में दूर दरख़्त की एक शाख़ पर अपने आशियाने को देख रहा हो।
उसकी ज़बान गूँगी थी। मगर दिल तो गूँगा नहीं था और उसके दिल की ज़बान उसकी गूँगी ज़बान से न मा'लूम क्या कुछ कहती रहती थी। लेकिन जैसे ही वो अपने ख़ूबसूरत जादूगर के सामने आती, “आँय बाँय” के सिवा उसकी ज़बान से कुछ भी न निकलता।
दीपक हँस पड़ता और गूँगी के सीने का शो'ला और भी भड़क उठता।
कई बार उसने तन्हाई में अपने महबूब के सामने अपनी ज़िंदगी के सबसे बड़े राज़ को मुंकशिफ़ करना चाहा... और जब कभी उसने ऐसी कोशिश की उसकी बे-मअ'नी आवाज़ दीपक के क़हक़हों से टकराकर हवा की गोद में दफ़्न हो गई।
ज़िंदगी की कितनी बड़ी महरूमी...।
दीपक उसकी हरकात को, उसकी बे-मअ'नी आवाज़ को क्या एहमियत दे सकता था? वो समझता था गूँगी बीमार है और बीमारी ही की वज्ह से ऐसी हरकतें कर रही है।
इंदिरा को अपनी ख़ादिमा का ख़ास ख़याल था। चुनाँचे उसने डाक्टर को बुलाकर गूँगी के इ'लाज का इरादा कर लिया।
डाक्टर ने गूँगी की तमाम कैफ़िय्यत सुनी और उसका इ'लाज करने लगा।
गूँगी ने ये समझ कर कि उसका राज़ किसी दूसरे पर मुंकशिफ़ न हो जाए, सँभलने की कोशिश शुरू’ कर दी। आख़िर उसकी कोशिश कामयाब हो गई। अब हर शख़्स की निगाहों में गूँगी सेहत-याब हो गई थी।
(5)
गूँगी सोचते-सोचते झुँझला उठती... झुँझला-झुँझलाकर फिर सोचने लगती। वो अपने दिल का राज़ क्योंकर अपने महबूब पर ज़ाहिर करे? ये बात उसकी समझ में न आती थी। उसकी सबसे बड़ी तमन्ना ये थी कि उसे एक लम्हे... बस एक लम्हे के लिए ज़बान मिल जाए और उस एक लम्हे में अपने महबूब को सब कुछ बता दे। लेकिन उसकी आरज़ू एक गूँगी की आरज़ू थी... एक क़ुव्वत-ए-गोयाई से महरूम औ'रत की आरज़ू थी। उसने आँखों से, हाथ के इशारों से अपने दिल की बात बताने की कोशिश की लेकिन कौन समझ सकता था कि वो क्या कह रही है...? कौन जान सकता था कि वो क्या बता रही है?
चंद दिन से उसकी बे-ताबी में इज़ाफ़ा हो गया था। वो पहले से भी बढ़कर मुज़्तरिब हो गई थी।
आख़िर एक तजवीज़ उसके ज़हन में आ गई और इस तजवीज़ के ज़हन में आते ही वो एक अ'जीब जुनून में गिरफ़्तार हो गई।
इंदिरा ने हैरत से देखा कि वो ब्रश से काग़ज़ पर टेढ़ी-तिरछी लकीरें खींच रही है और दीपक ने तअ'ज्जुब से देखा कि वो बड़ी संजीदगी से अपने जुनून का साथ दे रही है।
कई दिन गुज़र गए... कई हफ़्ते गुज़र गए... अब गूँगी का ब्रश इंसानी शक्ल बनाने में कामयाब हो चुका था। वो दीपक की तस्वीर को अपनी ख़्वाब-गाह में ले गई जहाँ उसकी अपनी तस्वीर लटक रही थी। ये वही तस्वीर थी जिसे दीपक ने बनाया था और जो ज्योती को बेहद अ'ज़ीज़ थी।
कई और हफ़्ते गुज़र गए... अब गूँगी का जुनून एक तस्वीर में मुंतक़िल हो चुका था।
तस्वीर में दीपक खड़ा था और ज्योती उसके पाँव पर उस तरह झुकी हुई थी कि उसकी दोनों बाँहें दीपक की टाँगों के गिर्द हमाइल हो गई थीं।
गूँगी ने अपने कारनामे पर निगाहें डालीं और ख़ुद-ब-ख़ुद शर्मिंदा हो गई।
गूँगी का काम ख़त्म हो चुका था लेकिन अभी उसका मक़्सद पूरा नहीं हो सकता था। दीपक अपने वतन में था और ज्योती उसकी आमद का इंतिज़ार करने लगी।
दीपक आ गया। उसे देखते ही गूँगी का दिल धड़कने लगा... वो अपनी ख़्वाबगाह में चली गई। फिर उसने तस्वीर उठाई और ख़्वाबगाह से निकल कर बाग़ीचे में जा खड़ी हुई।
काफ़ी वक़्त गुज़र गया और अभी दीपक कमरे ही में था।
ज्योती ने तस्वीर को पौदे के सामने रख दिया और ख़ुद इंदिरा के कमरे की तरफ़ आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाने लगी।
एक दो मिनट के बा'द वो इंदिरा के कमरे की दीवार के साथ खड़ी थी। उसने खिड़की से अंदर झाँक कर देखा और यकायक उसकी आँखों तले अँधेरा छा गया।
इंदिरा और दीपक... दीपक और इंदिरा... दीपक के बाज़ू इंदिरा की गर्दन में हमाइल और इंदिरा के हाथ दीपक के सीने पर।
गूँगी एक लम्हे के लिए भी वहाँ खड़ी न रह सकी... बाग़ीचे की तरफ़ जाने लगी और पौदे के क़रीब पहुँच कर खड़ी हो गई। फिर नश्तर की तरह एक ख़याल उसके दिल में चुभा। उसने तस्वीर को निकाला और उसे पुर्जे़-पुर्जे़ करके हवा की लहरों के सपुर्द कर दिया।
दीपक आया...। उसका चेहरा चमक रहा था। गूँगी ने उसे देखा और इस तरह खड़ी हो गई जैसे पत्थर की बे-जान मूर्ती हो।
दीपक काग़ज़ के पुर्ज़ों पर क़दम रखता हुआ चला गया।
(6)
जलते हुए चराग़ में से एक दम तेल निकाल देने से चराग़ की जो कैफ़िय्यत होती है, वही कैफ़िय्यत ज्योती की हुई। उसकी तमाम उम्मीदें, तमाम आरज़ूएँ ख़ाक में मिल गई थीं। उसके मन का दीपक बुझ चुका था। ताहम उसने अपनी तमाम-तर तवज्जोहात घर के कामों पर मुर्तकिज़ कर दीं। वो सुब्ह से लेकर शाम तक एक मशीन की तरह काम करती थी और चाहती थी कि हर वक़्त काम करती रहे।
आहिस्ता-आहिस्ता उसकी तबीअ'त में कुछ तबदीली सी पैदा होने लगी।
इंदिरा की मंगनी दीपक से हो गई और चंद रोज़ के बा'द शादी की तैयारियाँ होने लगीं। ज्योती एक वफ़ा-दार ख़ादिमा की तरह शादी की तैयारियों में हिस्सा लेने लगी।
एक दिन इंदिरा और दीपक उस रिश्ते में मुंसलिक हो गए जिस रिश्ते को दुनिया शादी कहती है। चूँकि दीपक एक ग़रीब मुसव्विर था इसलिए सेठ बद्रीप्रशाद ने अपनी बेटी और दामाद को अपने बंगले में रहने की इजाज़त दे दी।
इंदिरा गूँगी को अपने लिए बहुत बड़ा ज़रीआ-ए-तफ़रीह समझती थी इसलिए वो गूँगी को भी अपने साथ ले जाने लगी।
गूँगी ने उसके साथ जाने से इंकार कर दिया मगर इंदिरा के सामने उसके इंकार की क्या हक़ीक़त थी।
तीनों हस्तियाँ शहर के बाहर एक शानदार बंगले में ज़िंदगी गुज़ारने लगीं।
(7)
कुछ देर के लिए गूँगी की तबीअ'त में सुकून पैदा हो गया था। मगर ये सुकून समंदर के उस सुकून की मानिंद था जो एक क़यामत-ख़ेज़ और ख़ौफ़नाक तूफ़ान की पेश-ख़ेमा साबित होता है। उसका दिल हर वक़्त बेचैन रहता था और उसका दिमाग़ हर लम्हा एक कश्मकश में गिरफ़्तार...।
वो कोशिश करती कि ये बेचैनी दूर हो जाए। उसके दिमाग़ को इस कश्मकश से नजात मिल जाए। लेकिन न तो बेचैनी दूर होती और न कश्मकश से नजात मिलती।
काम करते वक़्त या दिल को समझाते वक़्त वो समझ लेती। कि उसके दिल का ज़ख़्म हमेशा के लिए मुंदमिल हो गया है। मगर जैसे ही उस ज़ख़्म में एक टीस सी उठती वो परेशान हो जाती और ये परेशानी उसके ज़ख़्म में नश्तर सा चुभो कर ज़ख़्म को और गहरा कर देती।
एक दिन उसने घर से भाग जाने का इरादा कर लिया। वो ये इरादे लेकर दरवाज़े तक गई... अचानक दीपक का चेहरा नज़र आ गया और वो इस तरह लौट आई जिस तरह दरिया की लहर साहिल पर पड़ी हुई किसी चीज़ को बहाकर ले जाती है।
उसके दिल में हर वक़्त जज़्बा-ए-मुहब्बत और जज़्बा-ए-ख़ौफ़ के दरमियान एक कश्मकश सी जारी रहती थी। कभी तो ख़ौफ़ का कसीफ़ बादल मुहब्बत की आग पर इस तरह छा जाता कि ज्योती अपने चेहरे पर हाथ रख लेती और भाग जाने का इरादा कर लेती और कभी ये आग इस तरह भड़क उठती कि ख़ौफ़ का बादल उसके शो'लों पर धुएँ की बारीक सी चादर बन जाता।
आख़िर वो कब तक ज़ब्त करती। इज़्तिराब और बेचैनी की चंद लहरें उठीं और उसके सुकून-ओ-ज़ब्त को तिनकों की तरह बहा कर ले गईं।
जब कभी वो कमरे में तन्हा होती और समझती कि मालिका दूसरे कमरे में काम कर रही है तो वो दीपक की क़मीज़ को सीने से लगा कर ज़ोर-ज़ोर से भींचने लगती।
एक दिन वो कमरे में अकेली बैठी थी। उसके सामने दीपक की तस्वीर पड़ी थी जिसे वो आँसू भरी आँखों से देख रही थी। उसने लरज़ते हुए हाथों से फ़ोटो को उठाया और उसे आँखों के बहुत क़रीब ले आई।
आँसुओं ने उसकी आँखों पर इस तरह नक़ाब डाली हुई थी कि वो अपनी मालिका को भी न देख सकी जो उसकी दाएँ जानिब खड़ी उस मंज़र को सख़्त हैरत के आलम में देख रही थी।
इंदिरा आज तक इस क़दर हैरान नहीं हुई थी।
वो चुप-चाप कमरे से निकल गई। उसके दिल में एक काँटा सा चुभने लगा था। मेरे शौहर के फ़ोटो को इस आ'लम में देखना... आख़िर ये क्या मुअ'म्मा है? गूँगी को हो क्या गया है आज? पागल हो गई है... पागल... उसने मेरे फ़ोटो को क्यों नहीं देखा? ख़ास तौर पर दीपक के फोटों को क्यों देख रही है।
इंदिरा उस दिन शाम तक इन्ही ख़यालात में ग़र्क़ रही।
एक दिन बारिश हो रही थी। ज्योती किसी काम की ग़रज़ से सेहन में से गुज़र रही थी कि उसका पाँव फिसला और वो धम से ज़मीन पर गिर पड़ी। दीपक भाग कर उसकी तरफ़ गया और उसे बे-होशी की हालत में उठाकर कमरे की तरफ़ ले जाने लगा।
“बेचारी बे-होश हो गई है।”, दीपक ने अपनी बीवी से मुख़ातिब हो कर कहा...। बीवी ने देखा कि गूँगी की बाँहें उसके शौहर की गर्दन में हमाइल हैं।
“इसे चारपाई पर लिटा दीजिए!”, इंदिरा ने चीं-ब-जबीं हो कर कहा।
“लिटाऊँ कैसे? देखो तो बे-चारी का क्या हाल है?”
इंदिरा ने गूँगी की बाँहों को ज़ोर से झटका दिया। गूँगी ने एक हल्की सी चीख़ के साथ आँखें खोल दीं।
दीपक ने उसे चारपाई पर लिटा दिया और अपनी बीवी पर ख़फ़ा होने लगा कि उसने ज्योती की बाँहों को झटका दे कर उसे डरा दिया था... वाक़ई’ उस वक़्त गूँगी की हालत एक ख़ौफ़-ज़दा हिरनी की सी थी।
इसके बा'द ज्योती की तरफ़ से इंदिरा बद-गुमान हो गई... उसका रवैया यकसर बदल गया। वो बात बात पर ज्योती को बुरा-भला कहने लगी। बल्कि बाज़-औक़ात फ़र्त-ए-ग़म-ओ-ग़ुस्सा में उसे थप्पड़ भी लगाने लगी।
एक दिन उसने गूँगी की पिसली पर ज़ोर से लात मारी। गूँगी दर्द से बिलबिला उठी फिर चुप-चाप अपने कमरे में चली गई ओ और चारपाई पर गिर पड़ी।
सुब्ह इंदिरा और दीपक ने देखा कि गूँगी बंगले में नहीं है।
दीपक हैरान था कि वो कहाँ चली गई है... और इंदिरा मुतमइ'न थी कि बला से नजात मिल गई।
(8)
घर से निकल कर गूँगी हैरान थी कि किधर जाए, कहाँ जाए। उसने चाहा कि फिर गदागरी करके गुज़ारा करे लेकिन अब ये उसके बस का रोग न था। उसने चाहा कि अपनी ज़िंदगी का ख़ात्मा कर दे... लेकिन अभी वो दरिया से कुछ दूर ही थी कि भूक और प्यास की शिद्दत से बे-होश हो कर गिर पड़ी। हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से गाँव के ज़मींदार की दोनों लड़कियाँ गाड़ी में बैठ कर इधर से गुज़र रही थीं। उन्होंने एक औ'रत को बेहोश देखा तो अज़-राह-ए-रहम उसके पास गईं और उसे हिलाने लगीं। गूँगी ने आँखें खोल दीं।
लड़कियों ने उसे बहुतेरा बुलाया लेकिन वो उन्हें टकटकी बाँध कर देखती रही।
लड़कियाँ उसे गाँव में ले गईं। शाम के वक़्त कहीं जाकर गूँगी ने इशारे किए... घर वालों ने समझ लिया कि बे-चारी गूँगी है। गूँगी अब वहीं रहने लगी।
(9)
दीपक पर एक ख़ौफ़-नाक बीमारी का शदीद हमला हुआ। जिसने उसके चेहरे की तमाम ख़ूबसूरती छीन ली। अब वो चंद क़दम भी चलता था तो उसकी टाँगें लड़खड़ाने लगती थीं।
इंदिरा को कभी ख़याल भी न हो सकता था कि उसका हसीन शौहर इस क़दर बदसूरत... इस दर्जा करीह-उल-मंज़र हो जाएगा।
शौहर की बदसूरती ने उस पर ख़ास असर किया और इसका नतीजा ये हुआ कि ये अब उसके दिल में शौहर की वो मुहब्बत न रही जो पहले थी।
शदीद बीमारी ने दीपक के मिज़ाज में चिड़चिड़ापन पैदा कर दिया था और ये चिड़चिड़ापन इंदिरा के लिए ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त चीज़ थी। चुनाँचे हर-रोज़ उन दोनों में तकरार होती थी। इसी तरह दिन गुज़र रहे थे।
दीवाली की रात थी। इंदिरा का बच्चा खिलौनों के लिए ज़िद करने लगा... इंदिरा और दीपक दोनों बच्चे को साथ लेकर बंगले से निकल आए... ज़मींदार की लड़कियाँ भी गूँगी को साथ लिए बाज़ारों में घूम रही थीं। गूँगी उनके पीछे-पीछे चीज़ें उठाए चली जा रही थी कि उसकी नज़र इंदिरा पर पड़ी। फिर इंदिरा के चेहरे से हट कर दीपक के चेहरे पर...।
हैरत से उसकी आँखों की पुतलियाँ फैल गईं।
उसने अपनी आँखों को दो तीन बार मला। मगर उसके सामने दीपक ही खड़ा था।
गूँगी के दिल में बीसियों नश्तर चुभ गए। ज़मींदार की लड़कियाँ तो हँसती हुई आगे निकल गईं और उन्हें गूँगी की उस वक़्त ख़बर मिली जब वो टाँगे की लपेट में आकर ज़ख़्मी हो चुकी थी।
(10)
गूँगी पहले से भी बढ़कर बेताब हो गई। उसके दिल का ज़ख़्म जिसकी ख़ूँ-फ़िशानी बंद हो गई थी, अब फिर फट गया था... उसका महबूब शदीद बीमार है, ये ख़याल एक लम्हे के लिए भी उसे नहीं भूलता था। एक लम्हे के लिए भी उसकी बे-क़रारी कम न होती थी। वो कोयले से दीवारों पर दीपक की तस्वीर बनाती थी और फिर उसे मिटा देती थी।
उसकी सबसे बड़ी... सबसे आख़िरी आरज़ू ये थी कि एक-बार अपने महबूब को देख ले। उसे यक़ीन हो गया था कि वो अन-क़रीब मर जाएगा।
एक तूफ़ानी रात थी। ठंडी हवा के जिस्म ख़राश झोंके शोर पैदा करते हुए चल रहे थे। उस वक़्त जो हालत फ़िज़ा की थी वही गूँगी के दिल की भी थी। वो बे-क़रारी से मग़्लूब हो गई... उसे ख़ुद भी मा'लूम न हुआ कि वो क्या कर रही है। उस वक़्त उसे होश आया जब वो लालटैन उठाए तेज़ी के साथ चली जा रही थी।
बारिश... चीख़ते हुए तेज़, तुंद और हड्डियों में शिगाफ़ करते हुए हवा के झोंके... गूँगी तेज़ चली जा रही थी।
एक जगह पहुँच कर वो धम से गिर पड़ी। उसकी टाँग पर कई ज़ख़्म आए और पाँव ख़ून-आलूद हो गए। मगर वो एक कराह के साथ फिर उठी और ज़ियादा तेज़ी से चलने लगी।
आख़िर गूँगी बंगले के क़रीब पहुँच गई।
(11)
दीपक अपने कमरे में तन्हा लेटा हुआ था। वो तन्हा था और शदीद बीमार। बीवी नाराज़ हो कर मैके चली गई थी।
यकायक उसने क़दमों की चाप सुनी। वो बिजली का बटन दबाने के लिए उठा। अभी उसका हाथ बटन तक नहीं पहुँचा था कि फ़र्त-ए-ज़ो'फ़ से गिर पड़ा। उसे यूँ महसूस हुआ जैसे उसकी हड्डियाँ पीस दी गई हैं।
फ़िज़ा में आँ-वाँ की सी आवाज़ें आने लगीं। दीपक ने सर उठा कर देखा।
रौशनी... और फिर गूँगी का चेहरा...।
“ज्योती...?”, दीपक ने हैरत से कहा। “तुम यहाँ ज्योती?”
ज्योती आगे बढ़ आई। उसने लालटैन खिड़की के क़रीब रख दी... दो तीन लम्हे ख़ामोश... साकित खड़ी रही और फिर बे-इख़्तियार हो कर उसने दीपक के हाथ पकड़ लिए।
हवा के तुंद झोंकों से खिड़की खुल गई। लालटैन दूसरी तरफ़ जा गिरी। कमरे में अँधेरा छा गया।
बिजली चमकी... ज्योती ने अपने महबूब के चेहरे को देखा...। उसके होंट हिले... और फ़िज़ा में एक आवाज़ पैदा हुई, “दी... पक...”
दूसरे लम्हे में गूँगी की टाँगें लड़खड़ाईं और वो धम से गिर पड़ी।
(12)
सुब्ह इंदिरा हज़ारों शिकवे और शिकायतें लिए हुए बंगले में दाख़िल हुई और जल्दी-जल्दी क़दम उठाती दीपक के कमरे में आ गई।
वहाँ पहुँचते ही... हैरत से एक क़दम पीछे हट गई।
दीपक फ़र्श पर गिरा पड़ा था... ज्योती भी गिरी पड़ी थी। उसकी दोनों बाँहें दीपक की टाँगों के गिर्द लिपटी हुई थीं।
दोनों के जिस्म सर्द थे।
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