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रौशनी की रफ़्तार

क़ुर्रतुलऐन हैदर

रौशनी की रफ़्तार

क़ुर्रतुलऐन हैदर

MORE BYक़ुर्रतुलऐन हैदर

    स्टोरीलाइन

    ‘रोशनी की रफ्तार’ कहानी कुर्तुल ऐन हैदर की बेपनाह रचनात्मक सलाहियतों के नये आयामों को प्रदर्शित करती है। इस कहानी में वर्तमान से अतीत की यात्रा की गयी है। सैकड़ों वर्षों के फासलों को लाँघ कर कभी अतीत को वर्तमान काल में लाकर और कभी वर्तमान को अतीत के अंदर, बहुत अंदर ले जाकर मानव-जीवन के रहस्यों को देखने, समझने और उसकी सीमाओं तथा संभावनाओं का जायज़ा लेने का प्रयत्न किया गया है।

    डाक्टर (मिस) पदमा मैरी अबराहाम क्रेन। उ’म्र 29 साल, ता’लीम: ऐम.ऐस.सी. (मद्रास) पी.ऐच.डी. (कोलंबिया), क़द: पाँच फ़ुट 2 इंच, रंगत: गंदुमी, आँखें: सियाह, बाल: सियाह, शनाख़्त का निशान: बाईं कनपटी पर भूरा तिल, वतन: कोचीन (रियासत केरला), मादरी ज़बान: मलयालम, आबाई मज़हब: सीरियन चर्च आफ़ मालाबार, ज़ाती अ’क़ाइद: कुछ नहीं, पेशा: मुलाज़िमत)

    अमरीका से लौटने के बा’द डाक्टर क्रेन पिछले दो साल से जुनूबी हिंद के एक स्पेस रिसर्च सैंटर (Space Research Centre) में काम कर रही थी। उसे सरकारी कॉलोनी में एक मुख़्तसर-सा बंगला मिला हुआ था, जिसमें वो अपने दो छोटे भाईयों के साथ मुक़ीम थी। दोनों भाई कॉलेज में पढ़ रहे थे। वालिदैन (पैंशन-याफ़्ता स्कूल टीचर) कोचीन में रहते थे।

    पदमा मैरी एक ख़ामोश-तब्अ’ मेहनती लड़की थी जो बड़ी लगन से अपने फ़राइज़-ए-मंसबी अंजाम देती थी। महीने में एक-आध बार सिनेमा देख आती थी। और औक़ात-ए-फ़ुर्सत में दोस्तों को चीनी खाने पका कर खिलाना उसका मर्ग़ूब मशग़ला था। एक सैकंड हैंड कार ख़रीदने के लिए रुपया जमा’ कर रही थी। और साईकल पर दफ़्तर आती जाती थी। एक बिल्कुल नॉर्मल क़िस्म की सीधी-सादी साउथ इंडियन लड़की।

    अप्रैल १९६६ के एक ख़ुशगवार दिन, लैबारेटरी में काम करते-करते पदमा ने घड़ी पर नज़र डाली। सुब्ह वो जल्दी में नाश्ता किए बग़ैर गई थी। और अब उसे सख़्त भूक लग रही थी एक बजने वाला था। चंद मिनट बा’द वो बैग उठा कर बाहर आई। साईकल पर बैठी और अपने काटज की सिम्त रवाना हुई।

    रास्ते में एक जगह एक पतला सा नाला और पुल पड़ता था। दूसरी तरफ़ सब्ज़ा-ज़ार और घना जंगल। ख़ासी सुनसान सड़क थी। इस वक़्त पुल पर से गुज़रते वक़्त उसकी नज़र घास के मैदान पर पड़ी तो उसे बड़ा अचम्भा हुआ। एक छोटा सा बैज़वी रौकेट घास पर खड़ा अ’जीब सी रोशनी में दमक रहा था। वो साईकल से उतरी और नर्सलों में से गुज़रती उसके क़रीब पहुँची। चारों तरफ़ से ब-ग़ौर देखा। एक दरवाज़ा अंदर दो सीटें। ख़ला-बाज़ ग़ायब। दरवाज़े पर जूँही हाथ रखा वो आपसे आप खुल गया। डाक्टर क्रेन ख़ुद स्पेस रिसर्च में मसरूफ़ थी। बड़े शौक़ से उसने रौकेट में क़दम रखा। दरवाज़ा फ़ौरन बंद हो गया, कौकपिट में बैठ कर सब कलपुर्ज़े देखे-भाले। कुछ पल्ले पड़ा। मुतअ’द्दिद पुश बटन और सोच और रौशन डायल जिन पर सदियों के आ’दाद थे सुर्ख़-रंग की सूई 1966 पर साकित खड़ी थी।

    अब क्या हुआ कि डाक्टर साहिब बाहर निकलने के लिए सीट पर से उतरने लगीं। उनकी दाहिनी कहनी 1315 क़.म. वाले पुश बटन से टकरा गई। सफ़ेद रोशनी का एक कौंदा लपका... जूँ... जूँ... पल की पल में रौकेट ना-मा’लूम कहाँ से कहाँ... डाक्टर क्रेन के होश उड़ गए, हाथ पाँव ठंडे पड़े, सर घूम गया, आँखें बंद कीं। आँखें खोलीं। चारों तरफ़ रौशन आसमान नीचे नीला समंदर दरिया का डेल्टा। दलदल। सरकंडे। रेगिस्तान। इत्मीनान का सांस लिया। अजी कहाँ का साईंस फ़िक्शन। वही अपनी जानी-पहचानी पुरानी-धुरानी दुनिया थी। शुक्र ख़ुदा का। रौकेट ज़मीन पर उतर चुका था। सुर्ख़ सोई 1415 क़.म. पर टिक गई। दरवाज़ा ख़ुद-ब-ख़ुद खुला... पदमा मैरी बाहर निकली। सामने झील के किनारे एक नन्हा गडरिया पत्थर पर बैठा बाँसुरी बजा रहा था। ख़जूरों के नीचे बकरियाँ चर रही थीं। उफ़ुक़ पर एहराम... गुड हैवन्ज़... ये तो मिस्र निकला... गुड इजिप्ट।

    दो बरस क़ब्ल न्यूयार्क से बंबई जाते हुए वो मिस्र से गुज़री थी। एहराम की ख़ूब तस्वीरें खींचीं। यही चरवाहे। यही नख़्लिस्तान, यही फ़ल्लाहीन।

    ये 1315 क़.म. कहाँ से आया। सरीहन 1966 है। चलो भई। टाइम मशीन, कुछ। ताज़ा-तरीन क़िस्म का रौकेट है, जिसे कोई विज़िटिंग अमरीकन या रूसी साईंसदान हमारे यहाँ लाया होगा... ये सोच कर उसे बड़ा इत्मीनान हुआ।

    अचानक एक और परेशानी। मुम्किन है ये जगह स्वेज़ के नज़दीक हो। मुश्तबा हालात में फिरती, पकड़ी गई तो और मुसीबत। हिन्दोस्तान मिस्र का लाख दोस्त सही मगर पासपोर्ट, वीज़ा। अब फ़ौरन पहुँचना चाहिए इंडियन एंबैसी काइरो (क़ाहिरा)

    एहराम के आस-पास के फ़ल्लाहीन और चरवाहे मग़रिबी सय्याहों की मुसलसल आमद-ओ-रफ़्त की वज्ह से थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी समझ लेते हैं। लिहाज़ा पदमा मैरी ने उस गडरिये से कहा, “काइरो... बस... टैक्सी... औटोमोबील...”

    लड़के ने सर हिलाया। दूर एक किसान गधे पर सवार बगटुट चला जा रहा था। लड़के ने उसे आवाज़ दी। वो धूल उड़ाता क़रीब आया। गडरिये ने उससे कुछ कहा।

    तब दफ़अ’तन पदमा मैरी पर एक ख़ौफ़नाक इन्किशाफ़ हुआ। गडरिया और किसान जो ज़बान बोल रहे थे, वो अ’रबी नहीं थी (कोलंबिया यूनीवर्सिटी के लेबनानी तलबा से काफ़ी अ’रबी सुनी थी) और ये अजनबी भाषा सिर्फ़ उसकी समझ में रही थी बल्कि उसने ख़ुद को इस अदक़ अफ़्रीक़ी ज़बान में फ़र-फ़र बातें करते पाया।

    “क़ाहिरा”, उसने दरियाफ़्त किया, “यहाँ से कितनी दूर है?”

    दोनों मिस्रियों ने उसे सवालिया नज़रों से देखा। मअ’न उसने कहा, “मेमफ़िस”

    किसान ने एक सिम्त को इशारा किया। वो उचक कर गधे पर सवार हो गई। भूक के मारे बुरा हाल था। शहर पहुँच कर सबसे पहले कुछ खाऊँ... मगर फ़ौरन ऐक्सचेंज का क्या होगा। और ये क़दीम जाहिल जुट लोग कहीं मेरा रौकेट तोड़ फोड़ कर बराबर कर दें। पलट कर देखा। इस अस्ना में चार पाँच गडरिये रौकेट के गिर्द जमा हो चुके थे और सज्दे में पड़े थे। उसे देखकर बाक़ी भी गड़ाप से सर-ब-सुजूद हो गए। उनमें से एक ने ज़मीन पर पड़े-पड़े ना’रा लगाया।

    “मरहबा। देबी हासूर!”

    बाक़ियों ने कोरस में कहा, “आसमानी रथ पर आने वाली मादर होरस हम पे करम कर...”

    पदमा मैरी चंद लम्हे ख़ामोश रही। फिर वक़ार से बोली, “मेरे बच्चो... मैं देबी हासूर की दासी हूँ, एक खु़फ़िया काम से देबी ने मुझे ज़मीन पर भेजा है... किसी को मेरे मुतअ’ल्लिक़ हरगिज़ बताना। वर्ना देबी का ऐसा क़हर नाज़िल होगा, याद करोगे और मेरे आसमानी रथ की निगरानी करते रहो। ख़बरदार जो उसे हाथ भी लगाया...”

    मेमफ़िस बड़ा बा-रौनक़ शानदार शहर था। जैसा कि मेमफ़िस को होना चाहिए था। गधे वाला कनीज़ हासूर की दहशत में थर-थर काँप रहा था। उसे एक चौक में उतार कर भीड़ में ग़ायब हो गया। पदमा ने चारों तरफ़ देखा। यहाँ रेस्तोराँ नहीं होते होंगे? उसने सोचा। वो एक बड़ी दूकान के सामने खड़ी थी। अंदर अलमारियों में पेपाइरस के गट्ठर रखे थे एक जवान ख़ुश शक्ल, सर्व क़ामत... सुनहरी लुंगी जिस पर सियाह धारियाँ पड़ी थीं, चुनी हुई मलमल की क़बा गले में, चौड़ा तिलाई कंठा, ज़ुल्फ़ों के चौकोर पट्टे, पेशानी पर बालों की झालर, दुकानदार से बातें कर रहा था। दो हब्शी ग़ुलाम उसके पीछे पेपाइरस के बंडल उठाए खड़े थे।

    अब यहाँ से साईंस फ़िक्शन में रोमांस शुरू’ हो जाना चाहिए। मगर नहीं होगा। पदमा भूक से बेहाल थी। रेस्तोराँ की तलाश में ज़रा आगे बढ़ी तो एक बंद दूकान (जिस पर लिखा था किराए के लिए ख़ाली है) के थड़े पर एक बारैश बुज़ुर्ग अकड़ूँ बैठे तस्बीह फेरते नज़र आए। सर पर गोल टोपी, लंबा चुग़ा। कोचीन के यहूदियों या सीरियन चर्च के पादरियों या मोपला मौलवियों की सी वज़्अ’-क़त्अ’। हालीवुड के फिल्मों वाली “पीरियड कोस्टयूम” पहने क़दीम मिस्रियों के इस अंबोह कसीर में यक-लख़्त एक मानूस सी शख़्सियत। उसी वक़्त एक लंबा-तड़ंगा ख़श्मनाक मिस्री चाबुक और एक तवील काग़ज़ लहराता बाज़ार की भीड़ में से नुमूदार हुआ। काग़ज़ पीर-मर्द को थमाया और अकड़ता हुआ आगे बढ़ गया। बुज़ुर्ग ने नविश्ते पर नज़र दौड़ाई और दिल-दोज़ आवाज़ में पुकारे।

    “मीख़ाईल बिन हन्नान...”

    लंबी पतली नाक, सियाह हस्सास आँखों, हस्सास चेहरे वाला एक अ’बा-पोश नौजवान बराबर की गली से बरामद हुआ।

    “ख़ुदा-ए-वाहिद की ला’नत हो इस बद-बख़्त ज़माने पर।”

    “ए अ’ज़ीज़ गिर्ये कर। और सर पर ख़ाक डाल कि तिरा नाम भी फ़हरिस्त में गया...।”

    मीख़ाईल का रंग ज़र्द पड़ा। और उसने आहिस्ता से कहा, “रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल शायद सौस के दिल में नेकी डाल देवे। वो रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल मेरी रोशनी और मेरी नजात है, जिसने इसराफ़ील शाह शनार और आरीवख़ शाह ईलाज़ार के अ’हद में अहल-ए-ईमान की हिफ़ाज़त की...”

    “अमीर-ज़ादा सौस...?”, बुज़ुर्ग ने सरगोशी में पूछा।

    “या रब्बी! मैं उसे देख रहा हूँ। वो काग़ज़ ख़रीदने आया है। मैं उससे बात करता हूँ... वो मेरा क्लास फ़ैलो रह चुका है। वो मेरी मदद करेगा।”

    मीख़ाईल जो अ’हद-नामा क़दीम के अव्वलीन सहाइफ़ से भी पहले की इब्रानी में बात कर रहा था। उसने ये लफ़्ज़ इस्ति’माल नहीं किया था। लेकिन मैं क़दीम-तरीन क़िब्ती और इब्रानी दोनों से ना-वाक़िफ़ हूँ। (वाज़ेह हो कि डाक्टर क्रेन उस वक़्त इब्रानी भी ब-ख़ूबी समझ रही थी।) मीख़ाईल लपक कर स्टेशनरी मार्ट में गया। पदमा सड़क के किनारे खड़ी ये सारा माजरा देखती थी। ख़ूब-रू सुनहरे नौजवान ने ज़र्द-रू इब्रानी से पूछा..., “कहो मीख़ाईल आजकल कहाँ रहते हो?”

    “दरियाई चुंगी पर काम करता हूँ।”

    “बहुत ख़ूब। बहुत ख़ूब। कभी-कभी मिलते रहो”, सुनहरे नौजवान ने सर-परस्ताना अंदाज़ में उसका कंधा थपकाया।

    “सौस मुझे तुमसे एक ज़रूरी बात करनी है”, इब्रानी लड़के ने झिझक कर कहा और सरगोशी में कुछ बताया। अमीर-ज़ादा सौस बा-वक़ार अंदाज़ में एक अब्रू उठा कर ब-ग़ौर सुनता रहा। फिर बोला, “फ़िक्र करो। मैं ऑनरेबल मिनिस्टर से बात करूँगा।”

    दफ़अ’तन उन दोनों नौजवानों की नज़रें उस अजनबी लड़की पर पड़ीं। दोनों एक साथ सीढ़ियाँ उतरे। अमीर-ज़ादा सौस ने अपनी कहनी की जुंबिश से मीख़ाईल को पीछे हटाया। ज़ाहिर था कि सौस और मीख़ाईल मैं आक़ा-ओ-महकूम का रिश्ता है। अब अमीर-ज़ादा सौस डाक्टर क्रेन की तरफ़ रहा था।

    पदमा ने जल्दी-जल्दी सोचा उन लोगों से अगर कहूँ कि इंडियन डांसर हूँ, फ़ौरन टूर पर निकली हूँ। क्या पता ले जाकर बाज़ार में बेच डालें।

    “वो देबी हासूर की दासी वाली बात बेहतर है। मगर किसी मंदिर में पहुँचा कर नाक में इतनी धूनी देंगे कि पाँच दस मिनट में दम निकल जाएगा। अस्ल वाक़िआ’ बताऊँ तो उनकी समझ में आएगा। उनकी क्या ख़ुद मेरी समझ में नहीं रहा।

    अमीर-ज़ादा सौस उसके सामने खड़ा था।

    “लड़की तुम कौन हो?”, उसने ज़रा डपट कर पूछा।

    “और हमारी बातें इतने ग़ौर से क्यों सुन रही हो? किस मुल्क की जासूस हो? ईलाम... असूरिया...? उरारतू...?”

    पदमा ने हवन्नक़ों की तरह ज़ोर-ज़ोर से सर हिलाया और ख़ौफ़ से लरज़ गई। सौस उसकी नाइलौन साड़ी और अमरीकन बैग को ध्यान से देख रहा था। पदमा ने इ’ज्ज़ से कहा, “हुज़ूर शहज़ादा सलामत कनीज़ भूक से बे-दम है। पहले कुछ खिला दीजिए। बंदी सब कुछ सच-सच अ’र्ज़ कर देगी!”

    “मेरे साथ चलो...”, अमीरज़ादे ने हुक्म दिया।

    वो उसके पीछे-पीछे हो ली। नुक्कड़ पर रथ स्टैंड था या रथ पार्क कह लीजिए। अमीर-ज़ादे ने पदमा को अपनी बराबर बिठा कर अस्प को चाबुक लगाया।

    वो बाज़ार से निकले और हेलियोपोलिस के फ़ैशनेबुल मुहल्ले में पहुँचे। कुशादा सड़क के दोनों जानिब शानदार मकान इस्तादा थे। कूड़ा-कर्कट पड़ा था। बच्चे खेल रहे थे। एक सह-मंज़िल हवेली के सामने पहुँच कर रथ रुका। वो उतर कर बरामदे में गए। जिसके क़िर्मिज़ी पील-पायों के सिरे कँवल की वज़्अ’ से तराशे गए थे। एक सियाह फ़ाम भैंगे ग़ुलाम ने सुर्ख़-रंग का सद्र दरवाज़ा खोला। वो हाल में दाख़िल हुए। उसके झलझलाते सुरमई फ़र्श के वस्त में संग सियाह का हौज़ था। सुनहरे फ़ीतों में लिपटे पेपाइरस के रोल अलमारियों में रखे थे। दीवारों पर रंगीन फ़्रेस्को। यक-रुख़ी शक्लों की क़तारें, सुनहरे काऊच, कुर्सियाँ! लगता था ये सारा फ़र्नीचर ब्रिटिश म्यूज़ियम के “इजिप्शियन रूम्ज़ से वापिस लाकर यहाँ सजा दिया गया है।

    सौस ने खाना लाने का हुक्म दिया और हौज़ के किनारे बिछी चर्मी गद्दों वाली एक कुर्सी पर बैठ गया। सैंडिल उतारे और सवालिया नज़रों से डाक्टर मेरी क्रेन को देखने लगा। पदमा मैरी ने मुक़ाबिल की कुर्सी पर टुक गला साफ़ किया।

    “हुज़ूर... मैं... मैं इंडिया से रही हूँ...”

    “रक़्स करती हूँ...”

    उसने खड़े हो कर मोहिनी आत्म के चंद मुद्रा दिखाए। सौस क़तई’ मुतास्सिर हुआ। वो फिर कुर्सी पर बैठ गई।

    “जिस बादबानी जहाज़ पर...”, उसने बहुत सोच-विचार कर कहना शुरू’ किया...

    “बादबानी जहाज़ पर रही थी वो स्वेज़ कनाल में तबाह हो गया। मैं एक तख़्ते पर...”

    “स्वेज़ कनाल...”

    सौस ने बा-दिक़्क़त ये नाम दुहराया और मज़ीद तशरीह का मुतवक़्क़े’ रहा। अब वो बिल्कुल हड़बड़ा गई।

    सौस ने झुँझला कर पूछा, “इस इब्रानी छोकरे को जानती हो?”

    “आ’लीजाह! रब्बिह हासूर और उसके बेटे की क़सम... मैं यहाँ किसी को नहीं जानती हुज़ूर!”

    लगता था मुक़द्दस माँ और बेटे की क़सम पर उसे दफ़अ’तन एतबार गया।

    “अच्छा मुझे हुज़ूर, हुज़ूर मत कहो और चलो खाना खाओ”, उसने कहा और पदमा को ऐवान-ए-तआ’म में ले गया...

    कनीज़ों ने नुक़रई क़ाबें ला-ला कर मेज़ पर चुनना शुरू’ कीं। पदमा ने सुब्ह दस बजे बैंगलौर में लैबारेटरी की कैंटीन में डाक्टर राम नाथन और डाक्टर रफ़ीक़ फ़त्ह अली के साथ तबादला-ए-ख़यालात करते हुए फ़क़त एक प्याली काफ़ी की पी थी। इस वक़्त-ए-शाम के साढ़े चार बज रहे थे। उसने सौस की नज़रें बचा कर रिस्ट वाच उतारी और बैग में रख दी और खाने की तरफ़ मुतवज्जेह हुई जो ख़ासा बद-ज़ाइक़ा था।

    सूरज दरिया-ए-नील में डूबने वाला था और सहराई हवा में फ़रहत-बख़्श ख़ुनकी चली थी। वो अपनी ख़लीक़ मेज़बान के साथ महल के तवील दालान में टहल रही थी। अब तक उसे मुंदरजा ज़ैल बातें मा’लूम हो चुकी थीं। सौस का अस्ल नाम अस्तालीस था। सौस उसका सरकारी लक़ब था। यही लक़ब उसके बाप का भी था और रब्ब-ए-ऐवान-ए-कुतुब सौस हर मेज़ के नाम पर रखा गया था (इस देवता का हैबतनाक बुत अंदर हाल में एक मुक़द्दस बिल्ली की ममी के नज़दीक इस्तादा था।)

    मिस्टर सौस सीनियर फ़िरऔन के चीफ़ स्कराइब और ख़ानदानी रईस थे। सौस जूनियर भी लिखता-विखता रहता था। रस्म-उल-ख़त चूँकि तस्वीरी था ला-मुहाला मुसव्विरी भी आती थी। दरबारी साज़िशों से अलग रहता था और शहर के अदीबों और मुसव्विरों के हल्क़े में उठता बैठता था। अपने मुल्क के बहुत से दक़ियानूसी अ’क़ाइद और रुसूम से नालाँ था... लेकिन ये बुड्ढे नई नस्ल वालों की कुछ चलने देते थे। चुनाँचे ये है मिस्र क़दीम के असरार और रूमान की अस्लियत। पदमा ने मायूसी से सोचा। लाइब्रेरी में जो कातिब बैठे सहीफ़ा-ए-मुतव्वफ़ीन की नक़्लें करने में मसरूफ़ थे, उनमें से एक को ज़ुकाम हो रहा था। दूसरा मुसलसल अपना सर खुजाता था। दो नौजवान कातिब बराबर एक दूसरे से लड़ रहे थे। अनोती नामी कनीज़ हसीन थी मह-जबीं। चेचक-रू और भद्दी सी। ख़ुद सौस बिल्कुल नॉर्मल सा लड़का था। सिवाए उसके कि कोट पतलून के बजाए हालीवुड वाली पीरियड कौस्ट्यूम पहन रखी थी।

    फ़िरऔन अपनी अफ़्वाज के मुआ’इने के लिए अशूरिया की सरहद पर गया हुआ था। अशूरिया से कई साल से लड़ाई जारी थी।

    “हम दुनिया की क़दीम-तरीन तहज़ीब हैं”, सौस ने टहलते-टहलते बड़े जोश से कहना शुरू’ किया।

    “ये कल्दानिया और अशूरिया वाले भी अपने मुतअ’ल्लिक़ यही दा’वा करते हैं और हमसे लड़ने आते हैं। मगर ज़ाहिर है कि हमारा उनका क्या मुक़ाबला। हम उनसे हर लिहाज़ से बरतर हैं।”

    पदमा ज़ेर-ए-लब मुस्कुराई, “मगर एक बात ज़रूर है”, सौस ने दालान के कुतुब-ख़ाने में वापिस आते हुए कहा।

    “कलदानी और आशूरी बहुत पढ़े लिखे लोग हैं। ये अल्वाह देखो, और साथ ही इस क़दर सफ़्फ़ाक।” उसने सिफाली अल्वाह के अंबार की तरफ़ इशारा किया।

    “जंग से पहले उनकी ये किताबें सैकड़ों ऊंटों पर लाद कर हमारे यहाँ लाई जाती थीं।” उसने झुक कर बारीक ख़त-ए-मीख़ी में कुंदा एक लौह उठाई।

    “ये तो मैं ब्रिटिश म्यूज़ीयम...”, पदमा ने फ़ौरन ज़बान दाँतों तले दबाई। फिर जल्दी से पूछा, “तुम यहाँ तन्हा रहते हो सौस...?”

    “वालिद, बादशाह सलामत के हमराह महाज़ के मुआ’इने के लिए गए हुए हैं। अम्माँ और बहनें मलिका-ए-आ’लम के साथ मौसम-ए-गर्मा के लिए थीब्ज़ जा चुकी हैं। जाना तो मुझे भी है। मलिका-ए-आ’लम ने वहाँ जल महल की दीवारें मुसव्विर करने का हुक्म दे रखा है। लेकिन मैं जब तक सहीफ़ा-ए-मुतव्वफ़ीन (Book of The Dead दुनिया की क़दीम-तरीन किताब है जो आज से तक़रीबन 6 हज़ार साल क़ब्ल मिस्र में लिखी गई थी उसका एक नुस्ख़ा हनूत-शुदा लाशों के साथ दफ़्न किया जाता था) का नया एडिशन पूरा नहीं करवा लेता, कहीं नहीं जा सकता।”

    “एक बात बताओ सौस। तुम लोग मौत से इस क़दर मस्हूर क्यों हो...?”, पदमा ने दरियाफ़्त किया। “और काहे से मस्हूर हों? फ़ानी ज़िंदगी से?”, सौस ने सवाल किया। वो उसके साथ अलमारियों के आगे से गुज़र रही थी। (अब वो तस्वीरी रस्म-उल-ख़त भी पढ़ सकती थी। उसने मुख़्तलिफ़ उ’नवानात पर नज़र डाली... मज़हब, अख़्लाक़ियात, क़ानून, तिब्ब, इ’ल्म-ए-नुजूम, ख़िताबत, रियाज़ी, अक़्लीदस, सफ़र-नामे, नावल, एंतीफ़ (एंतीफ़ 2600 क़.म.) का लिखा हुआ रूमान।)

    “मौत के इ’लावा और दिलचस्पियाँ भी हैं”, सौस ने मुस्कुरा कर कहा।

    “किताबें यहाँ से नक़्ल करवा के थीब्ज़ के कॉलेज और लाइब्रेरी में भेज दी जाती हैं।”

    “मुझे नहीं मा’लूम था, तुम लोग इतने पढ़े लिखे थे... मेरा मतलब है... हो... अक़्वाम-ए-ताहहोतीप। (ताहहोतीप 3550 क़.म. में मेमफ़िस में पैदा हुआ) क्या फ़रमाता है तुम्हारा ताहहोतीप।”

    “वो फ़रमाता है”, सौस ने एक रेशमी पार्चे का टुकड़ा अलमारी में से खींचा और पढ़ना शुरू’ किया... “इंसानों में ख़ौफ़-ओ-दहशत फैलाओ ख़ुदा, इसकी सज़ा देगा। जो शख़्स कहता है सारी ताक़त और सारा इक़्तिदार मेरा है अक्सर वही ठोकर खा कर गिर भी पड़ता है। हमेशा बैत-ए-तरह्हुम में सुकूनत रखो। देने वाला ख़ुदा है। बंदा ये समझे कि वो ख़ुद कुछ हासिल कर सकता है। और ख़बरदार... अल्फ़ाज़ के ज़रीए’ कभी फ़साद फैलाना...”

    वो फिर टहलती हुई सहीफ़ा-ए-मुतव्वफ़ीन के क़ातिबों की तरफ़ आई और दो-ज़ानू बैठ कर देखने लगी। एक मोटे कातिब ने नाक सनकते हुए एक तस्वीरी लफ़्ज़ के गिर्द क़िर्मिज़ी मू-क़लम से बैज़वी हल्क़ा खींचा।

    “ये एक बादशाह का नाम है।”

    उसने छतरी की तस्वीर बनाई।

    “शुमाली मिस्र का ताज सुर्ख़। जुनूबी का सफ़ेद। और फ़िरऔन सूरज देवता, रह का बेटा है”, कातिब ने उसे बताया। सूरज के लिए बत्तख़ की शक्ल बना कर उसके बीच में नुक़्ता लगा दिया और पानी पीने के लिए उठा।

    “सहीफ़ा-ए-मुतव्वफ़ीन में बयालिस अख़्लाक़ी अहकाम दर्ज हैं” सौस ने कहा। (मूसा ने तो यहाँ से जाकर सिर्फ़ दस अहकाम ही दिए हैं। शुक्र है। पदमा ने सोचा)

    “और हमारे बीस शाही ख़ानदानों के हालात दर्ज हैं जो पिछले तीन हज़ार साल तक मिस्र में हुक्मराँ रहे।”

    “साहिब”, एक टर्रा कातिब बोला, “अब छुट्टी करिए। मुझे बहुत दूर जाना है। बीवी बीमार है। कल के पैसे मिलेंगे...?”

    “कितनी बार लोगे। पेशगी भी ले चुके हो”, सौस ने बिगड़ कर कहा।

    “साहिब मुझे भी कुछ रक़म उधार दे दीजिए। मेरा लड़का...”, दूसरा मुल्तजी हुआ।

    आह मिस्र-ए-क़दीम का रूमान... पदमा वहाँ से उठकर दालान में गई। सौस क़ातिबों से निपट कर बाहर आया। उसके हाथ में एक पार्चा था।

    “तुम्हारी दिलचस्पी के लिए सहीफ़ा-ए-मुतव्वफ़ीन की एक हम्द निकाल कर लाया हूँ”, उसने पदमा को चिढ़ाने के लिए तबस्सुम के साथ कहा, इसका उ’नवान है, “एक मुर्दा ज़िंदा हो कर रा’ की मुनाजात करता है, सुनो।”

    उसने बरामदे के जंगले पर टिक कर पढ़ना शुरू’ किया।

    “तेरे पुर-जलाल तुलूअ’ पर तेरे काहिन हँसते हुए बाहर निकले। तिरी कश्ती-ए-सहर सफ़ीना-ए-शब से मिली और उनके ऐवान आवाज़ों से गूंज उठे। ज़माने गुज़र जाएँगे। वक़्त तेरे नीचे अपनी ख़ाक उड़ाता रहेगा। तू कि दोश-ओ-इमरोज़-ए-फ़र्दा है। रा’! लाखों बरस गुज़र गए। लाखों गुज़र जाएँगे। अनोती खाना लगाओ।”

    “तुम खाना बहुत जल्द खा लेते हो...?”, पदमा ने कहा।

    “हाँ वर्ना फिर मच्छर और पतंगे बहुत सताते हैं।”

    “तुम आज शाम को क्या कर रहे हो?”

    “अनोती...”, सौस ने दुबारा पुकारा, “मा’लूम कर के आओ चश्म-ए-होरस कै बजे शुरू’ होगा?”

    “शुरू’ हो चुका।”, अनोती ने जो काफ़ी मुँह-चढ़ी थी अंदर से जवाब दिया।

    “अच्छा अभी खाना रहने दो। चलो!”, उसने बे-दिली से पदमा को मुख़ातिब किया।

    “तुम्हें बाहर घुमा लाऊँ। मैंने ये तमाशा इतनी बार देखा है कि आ’जिज़ चुका हूँ। चलो...”

    वो दालान से उतर कर नियम-तारीक सड़क पर आए। कुछ लोग थेटर हाल की सिम्त जा रहे थे। हेलियोपोलिस बहुत वसीअ’ इ’लाक़ा था। आध मील चलने के बा’द रास्ते में एक मक़बरा पड़ा। उससे मुल्हिक़ मा’बद में बड़ी ख़ल्क़त जमा थी। ऊ’द-ओ-लोबान के मर्ग़ूले बाहर निकल रहे थे।

    “यहाँ क्या हो रहा है?”, पदमा ने पूछा।

    “किसी आँ-जहानी फ़िरऔन की रूह को नज़राना चढ़ाया जा रहा होगा। देखोगी?”, वो पदमा का हाथ पकड़ कर मा’बद के तंग सेहन में ले गया।

    “आज किस की रात है?”, उसने एक आदमी से पूछा।

    “फ़िरऔन नफ़र कारा”, उस शख़्स ने जवाब दिया। और ज़ेर-ए-लब मंत्र दोहराने में मसरूफ़ हो गया। सौस और पदमा दीवार से लग कर खड़े हो गए। अंदर मक़बरे के संग-लाख़ तह-ख़ाने में नफ़र कारा’ का खुला ताबूत दीवार के सहारे खड़ा था। मलमल की पट्टियों में मलफ़ूफ़ ममी बिल्कुल जीती-जागती मा’लूम होती थी।

    “मौसूफ़ को मरे ज़ियादा अ’र्सा नहीं गुज़रा। यही कोई एक हज़ार साल हुए होंगे। सौस ने सरगोशी में पदमा को बताया। काहिन की लर्ज़ा-ख़ेज़ आवाज़ गूँजी...

    “ओ बादशाह नफ़र कारा’ चश्म-ए-होरस क़ुबूल कर और इसे अपने चेहरे तक ले जा।”

    फिर उसने रोटी और जौ की शराब का पियाला सोने की थाली में रखकर ममी के सामने पेश किया। “ओ नफ़र कारा’ जिसका जाह-ओ-जलाल ख़त्म हो चुका। जो कुछ तेरी तरफ़ से आया है और इस पर नज़र कर और ग़ुस्ल कर। चश्म-ए-होरस के वसीले से अपना मुँह खोल। बादशाह नफ़र कारा’...”

    पुजारियों के इझ़्दिहाम की वज्ह से दम घुटा जा रहा था, सौस पदमा को बाहर निकाल लाया।

    “अब नाटक भी देखोगी...?”

    “उसमें भी यही चश्म-ए-होरस का वज़ीफ़ा होगा...?”, पदमा ने घबरा कर पूछा।

    “इतनी दूर चल कर आए हैं तो देख ही लें।”

    सौस चुप-चाप फिर उसके साथ सड़क पर गया। बेचारा मुझे एंटरटेन करने की ख़ातिर कितना बोर हो रहा है। मगर इतनी डिप्रेसंग अँधेरी शाम किस तरह गुज़ारी जाए। थेटर हाल वहाँ से ज़ियादा दूर था। प्ले (ये ड्रामा फ़िरऔन सेसौतरस अव्वल के जश्न-ए-ताज गुज़ारी के मौक़ा पर पहली बार स्टेज किया गया था। फ़्रांसीसी बास्ताँ-शनासों को इसका मुसव्विदा रासशिमरी की खुदाई में मिला) शुरू’ हुए बहुत देर हो चुकी थी।

    स्टेज पर होरस, सौस, सेत, औसायरस देवता लोग और चंद ग्वालीन क़साई और बच्चे मौजूद थे। होरस ने बच्चों से कहा, “मेरी दुनिया को मेरी आँख से मा’मूर कर दो...”

    उसी वक़्त पर्दा गिर गया। दूसरा सीन शुरू’ हुआ। अ’क़ीक़ की माला स्टेज पर लाई गई। होरस ने सेत से कहा।

    “मैंने अपनी आँख उठा ली जो तेरे लिए मिस्ल-ए-अ’क़ीक़ है। मेरी आँख लाओ जो तेरे लिए अ’क़ीक़ की तरह सुर्ख़ हो गई थी। जो तेरे मुँह में जाकर सुर्ख़ ख़ून की तरह सुर्ख़ हो गई।”

    पदमा ने सौस से सरगोशी में पूछा, “क्या हो रहा है?”

    “चमकीले आसमान के देवता होरस को रब्ब-ए-तूफ़ान सेत ने अंधा कर दिया था। रब तूफ़ान वो आँख होरस को वापिस कर देता है। यानी तूफ़ान के बा’द फिर ख़ुश-गवार मौसम...”

    पदमा ने सोचा... मिस्र में रेतीले तूफ़ानों से अंधे होने की बीमारी उतनी क़दीम है और इसकी कैसी असातीर तैयार हुईं।

    “ये तमाशा तो अभी बहुत देर तक जारी रहेगा... चाँद निकल आया है। दरिया पर चलती हो...?”, सौस ने दरियाफ़्त किया।

    “अगर तुम बुरा मानो सौस तो मैं अब घर जा कर सोऊँगी... सुब्ह आठ बजे दफ़्तर...” उसने फिर अपने आपको चैक किया।

    “बहुत ख़ूब”, सौस ने कहा। वो घर वापिस पहुँचे। ग़ुलाम खाने की मेज़ पर उनके मुंतज़िर थे... डिनर के दौरान में पदमा ने अपने मेज़बान से पूछा, “सौस... तुमने मुझे इब्रानियों की जासूस क्यों समझा था? क्या ये लोग तुम्हारे लिए एक मसअला हैं?”

    “हाँ”, सौस ने मछली से कांटा निकालते हुए जवाब दिया। मिशअ’लों की रोशनी उसके शकील चेहरे पर झिलमिला रही थी।

    “मगर हमारे फ़रमाँ-रवाओं ने इस मसअले का बड़ा इंसानियत-कश हल तलाश किया है। सारे इब्रानी मर्दों से जान-लेवा बेगार ली जाती है। ये एहराम जो तुम देखती हो इनमें से कई उन्होंने बनाए हैं। बेचारे लाखों मन पत्थर मीलों दूर से ढोकर लाते हैं और ख़ून थूक कर मर जाते हैं... बेचारा मीख़ाईल... उसे दरियाई चुंगी पर मुंशी-गीरी मिल गई थी। उसका ख़याल था बच निकलेगा मगर उसका नाम भी फ़हरिस्त में गया है...”

    “तुम कुछ नहीं कर सकते?”

    “अकेला मैं... एक पूरे निज़ाम के ख़िलाफ़ क्या कर सकता हूँ...?”, उसने अफ़्सुर्दगी से पूछा।

    खाने के बा’द सौस उसे बालाई मंज़िल पर एक बड़े कमरे में ले गया जिसका फ़र्श ज़र्द सूडानी पत्थर का था। दरीचे के नज़दीक मुनक़्क़श पायों वाली मसहरी बिछी थी। वस्त में आंबोस की गोल मेज़। एक तरफ़ चंद मुनक़्क़श चोबी संदूक़। सिंघार-मेज़ के फ़ौलादी आईने के सामने हाथी-दांत की मुरस्सा कंघी माही-नुमा नुक़रई सुर्मा-दानी, सुर्ख़ी-ओ-ग़ाज़े की जड़ाऊ शीशियाँ, और इसी तरह का दूसरा निस्वानी अल्लम-ग़ल्लम।

    “ये मेरी छोटी बहन का कमरा है”, सौस ने कहा।

    “तुम यहाँ आराम से सौ जाओ सुब्ह जिस वक़्त चाहो उठना। अनोती को आवाज़ दे लेना वो ग़ुलाम गर्दिश में सोएगी। शब-ब-ख़ैर।”

    “शब-ब-ख़ैर सौस...”, वो सर झुकाए शह-नशीन में से गुज़रता ज़ीने की तरफ़ चला गया। पलंग पर लेट कर वो बहुत देर तक बाहर देखती रही। खिड़की के ऐ’न नीचे संग-ए-सुर्ख़ का वसीअ’ तालाब था। जिसमें कँवल खिले थे... दूर सहरा पे चाँदनी छिटकी हुई थी और बड़ी सुहानी हवा चल रही थी। उसने एक झपकी ली थी कि मच्छरों की भिनभिनाहट ने चौंका दिया। ये बड़ा मच्छर उसकी नाक पर बैठा था। वो झुँझला कर उठ बैठी और फिर दरीचे के बाहर झाँकने लगी। थोड़ी देर में बाँसुरी के सुर ख़ामोश फ़िज़ा में बुलंद हुए। उसने नीचे झुक कर देखा। वो सौस था जो तालाब की सीढ़ियों पर चाँद के रुख़ बैठा बाँसुरी बजाता था। कहीं ये बेचारा इ’श्क़ में तो मुब्तिला नहीं हो गया। यक़ीनन हो गया। आधी रात को बैठे बे-वक़ूफ़ों की तरह बाँसुरी बजा रहे हैं। अब भागो यहाँ से सुब्ह मुँह-अँधेरे। हेलियोपोलिस से शहर-पनाह तक का रास्ता याद है। वहाँ से ख़ुरमे के झुंड तक पहुँचने में आधा घंटा लगेगा। रौकेट में सात बजे तक घर। ये हिसाब लगा कर वो दुबारा लेट गई। कुछ देर सौस की बाँसुरी सुना की। फिर उसे गहरी नींद गई।

    एक गंभीर आवाज़ ने उसे सुब्ह पाँच बजे ही जगा दिया। उसने तकिए से सर उठा कर बाहर झाँका। तालाब के किनारे एक बहुत लंबा क़वी हैकल मुअ’म्मर आदमी जो हुलिए से सौस का ख़ानदानी काहिन मा’लूम होता था। एक कँवल-नुमा सुतून पर खड़ा बाज़ू हिला-हिला कर पाँच सुरों में रा’ की हम्द-ख़्वानी कर रहा था।

    “मरहबा आतून... मरहबा... ख़र्पर... लब्बैक चश्म-ए-होरस... अतूम... रब-उश-शम्स... ख़ालिक़-ए-अकबर ताह... सारे जानदारों के दिलों में मौजूद ताह... जो सोचता है सो होता है अपने कलमे (शुरू’ में कलमा था और कलमा ख़ुदा के साथ था और कलमा ख़ुदा था। यूहना की इंजील का इब्तिदाई जुमला है। अ’हद-नामा जदीद मसीही क़ुरून-ए-ऊला में लिखा गया है। ताह की ये हम्द 2400 क़.म. की तस्नीफ़ है।) से उसने कायनात तख़्लीक़ की... ताह तानीन... बजरे पर सवार ख़परी... अतूम... ख़ालिक़-ए-जन-ओ-बशर। अन्न-दाता... जिसने अक़्वाम-ए-आ’लम की तफ़रीक़ उनकी रंगत से की। जिसकी मुहब्बत में नील रवाँ... रहीम-ओ-करीम, ख़ुदा-ए-वाहिद... दरिया की मछली और आसमान के परिंदे को ज़िंदा रखने वाले... कीड़ों और भंगों के पालन-हार... आमून... आतून हरा ख़ित्ते। मेरे ऊपर जगमगा तारा... तेरे सिवा कोई दूसरा ख़ुदा नहीं।”

    रा’ की रोशनी उफ़ुक़ पर फैलने लगी। सौस का पुरोहित लंबे-लंबे डग भरता मंदिर की सिम्त चला गया। जिसकी पुर-शिकोह इ’मारत फ़ज्र के धुँदलके में दूर से नज़र रही थी। पदमा ने तकिए के नीचे से बैग निकाला। कल से उसने चाय काफ़ी कुछ पी थी और सर में दर्द हो रहा था। सुब्ह को ये लोग जाने ब्रेकफास्ट क्या करते होंगे। तअ’ज्जुब की बात है। चाय की दरियाफ़्त से पहले लोग किस तरह ज़िंदा रहते थे। अब यही देख लो सौस किस मज़े से जी रहा है। चाय, काफ़ी, सिगरेट, सिनेमा, टेलीविज़न, टेलीफ़ोन, हवाई जहाज़, कम्पयूटर, ऐडवरटाइज़िंग, पब्लिक रीलेशन्ज़, जर्नलिज़म बेचारा कुछ भी नहीं जानता... फच... उसने फिर नीचे झाँका... मियाँ सौस तालाब में ग़ोता लगा रहे थे और नीलगूँ पानी का अ’क्स महल की ज़मुर्रदीं दीवारों पर जल-परियों के मानिंद रक़्साँ था। पैरते, पैरते सौस ने सर उठा कर ऊपर झरोके पर नज़र डाली और मुस्कुराया। फिर सीढ़ियों पर जाकर एक सुर्ख़ कँवल तोड़ने में मसरूफ़ हो गया।

    भागो... भागो... सरपट... पदमा हड़बड़ा कर उठी। चप्पल पहने, ख़्वाबगाह का दरवाज़ा खोला और बाहर निकली। हवेली अभी ख़ामोश पड़ी थी। सारे लौंडी, ग़ुलाम बरामदों में फ़र्श पर लंबी ताने सो रहे थे। वो दबे-पाँव ज़ीना उतर कर सेहन में आई। मुक़द्दस बैल आईपीनर के मुहीब बुत के नीचे से गुज़रती पक्की सड़क पर पहुँची। और भागना शुरू’ किया। मकानों के दरवाज़े अभी बंद थे। इक्का-दुक्का कुंजड़ा या माही-फ़रोश बहंगियाँ और टोकरियाँ उठाए कोहरे में से गुज़रता नज़र जाता था। हाँपते-काँपते उसने दर-ए-शहर-पनाह पर पहुँच कर ही दम लिया। मगर फाटक मुक़फ़्फ़ल पड़ा था। चंद पहरेदार ऊपर फ़सील पर टहल रहे थे। चार पाँच संतरी फाटक के सामने खड़े थे। उनमें से एक ललकारा...

    “ओ छोकरी किधर मुँह उठाए चली जाती है...”

    “दरिया पर...”, उसने हकला कर जवाब दिया, “मछली पकड़ने...”

    “मछली की बच्ची... आज जहाँ-पनाह वापिस रहे हैं। उनके आने से पहले फाटक नहीं खुलेगा...”

    “किस वक़्त आएँगे?”

    “क्या मा’लूम किस वक़्त आएँगे। तू पूछने वाली कौन...?”

    वो निढाल हो कर एक पत्थर पर बैठ गई। काफ़ी की तलब में दर्द-ए-सर बढ़ता जा रहा था। रथ में रहा होगा, जूँ की चाल। कम्बख़्त फ़िरऔन का बच्चा। ख़ुदा उसे ग़ारत करे। जाने कब तक पहुँचेगा। और अब तक उस हर्राफ़ा अनोती ने जा कर सौस से जड़ दी होगी कि हिन्दुस्तानी रक़्क़ासा ग़ायब हो गई। वो बेचारा क्या सोचेगा। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। क्या पता अब उसे यक़ीन हो जाए कि मैं आशूरी जासूसा हूँ। पकड़वा दे। फिर भयानक क़ैदख़ाना... और... और... मदर आफ़ गौड... हौली मैरी मदर आफ़ गौड... बरसों बा’द बे-इख़्तियार उसने सारी दुआ’एँ ज़ोर-ज़ोर से दुहरानी शुरू’ कर दीं। फिर उस पर मुनकशिफ़ हुआ कि वो क़िब्ती में “मादर ख़ुदावंद... मादर-ए-ख़ुदावंद” रटे जा रही है।

    एक बांका पहरेदार ढाल तलवार झनझनाता उसके नज़दीक आया और पूछा, “ओ छोकरी क्या तू रब्बिह आईसिस के मंदिर की देव-दासी है...?”

    पदमा ने बेबसी से इस्बात में सर हिलाया।

    “क्या कहते हो भाई ख़ूफ़ू...?”, दूसरा संतरी उसे ब-ग़ौर देखकर बोला, “ये तो वही है दोशीज़ा फ़लक... कल रात एक गडरिया मुझे बता रहा था...”

    दोनों संतरी फ़ौरन उसके सामने सज्दे में गिर गए।

    ऐ’न उस वक़्त फाटक की भारी ज़ंजीरें खड़खड़ाईं। नफ़ीरी, नक़्क़ारे और तबल-ए-जंग की फ़लक-शिगाफ़ सदाएँ बुलंद हुईं। मुसल्लह पियादे और तीर-अंदाज़ मार्च करते, घोड़े हिनहिनाते, अराकीन-ए-सल्तनत की सवारी के पीछे दाख़िल हुए। बे-इंतिहा ऊंचा तिलाई ताज और लिबास-ए-फ़ाखिरा पहने फ़िरऔन शुमाल-ओ-जुनूब अपने तिलाई रथ में अकड़ा बैठा था। शक्ल से काफ़ी बेवक़ूफ़ मा’लूम होता था। इस भीड़भाड़ के गुल-ग़पाड़े में पदमा ने निकल कर भागना चाहा। एक सिपाही ने नेज़े से उसका रास्ता रोक लिया।

    “रब्बिह हासूर की पैग़ाम्बर... दोशीज़ा-ए-अफ़्लाक... लब्बैक... चश्म-ए-होरस...”

    बड़ा ज़बरदस्त शोर मचा। हुजूम ने उसे बुरी तरह घेर लिया। उसका दम लौटने लगा। और उसे ग़श गया।

    जब डाक्टर पदमा मैरी अबराहाम क्रेन को होश आया दिन ढल रहा था। वो क़स्र-ऐ’न-उश-शम्स के इ’बादत-ख़ाने में एक जवाहर-निगार मस्नद पर नीम-दराज़ थी। तरह-तरह की ख़ुश्बूएँ सुलगाई जा रही थीं। काहिनों की जमाअ’त, आमून रा’... ताह (क़दीम मिस्री तस्लीस। ताह के 8 अवतार तसव्वुर किए थे) के विरद में मसरूफ़ थी। ताह तहीब... नीतर... का गीमनी... किसी को क्या मा’लूम क्या, होने वाला है। या ख़ुदा किस वक़्त अपना फ़ैसला सादर करेगा... सरापस... सरापस... एदफ़ो... मैं... ताह... ताह...

    डाक्टर क्रेन का सर चकरा गया। वो फिर मस्नद पर ढेर हो गई। सामने ज़ई’फ़-उल-उ’म्र फ़िरऔन एक तिलाई कुर्सी पर बैठा दाँत निको से बड़ी दिलचस्पी से उसे घूर रहा था। एक नर्म मिज़ाज शानदार सा शख़्स जो सौस का वालिद मा’लूम होता था। बस्ता सँभाले बादशाह के नज़दीक स्टूल पर बैठा था। देव क़ामत चीफ़ पुरोहित और ज़रीं कमर देव दासियों ने बे-चारी पदमा को गाव-तकिए के सहारे बिठाया। उसने नहीफ़ आवाज़ में कहा।

    “थैंक यू... ब्लैक काफ़ी... प्लीज़... नो शूगर...”

    “दोशीज़ा-ए-फ़लक क्या कह रही है?”, फ़िरऔन ने मरऊ’ब आवाज़ में बड़े काहिन से दरियाफ़्त किया। उसने सर हिलाया।

    “जहाँपनाह ये उलूही ज़बान मेरी समझ में भी नहीं आती।”

    फ़िरऔन मिस्र हाथ बांध कर अदब से डाक्टर क्रेन के सामने खड़ा हो गया। और यूँ गोया हुआ... “ज़ोहरा-जबीं दुख़्तर-ए-अफ़्लाक ये मिस्र की ऐ’न ख़ुश-नसीबी है कि अशूरिया से जंग के दिनों में मादर-ए-ख़ुदावंद (देबी हासूर होरस देवता की माँ मूर्तियों में शीर-ख़्वार होरस को दूध पिलाती दिखाई जाती थी। मसीहियत सबसे पहले मिस्र, शाम में फैली और क़बीलियों ने ईसाई होने के बा’द “उलूही माँ और बेटे” के तसव्वुर को मर्यम ऐसी की परस्तिश में मुंतक़िल कर दिया। कैथोलिक कलीसा हज़रत मर्यम को मादर-ए-ख़ुदावंद कहता है) ने तुमको यहाँ भेजा और फ़त्ह की बशारत दी। मा ब-दौलत चूँकि ख़ुद रा’ देवता के फ़र्ज़ंद अर्जमंद हैं, हमारा फ़र्ज़ है कि ब-तौर मेहमान-नवाज़ी-ओ-सिपास-गुज़ारी कल शाम के पाँच बजे तुमसे शादी कर लें...”

    पदमा ने आँखें फाड़ कर उसे देखा। ये पीर फ़र्तूत... इसकी ममी मैंने ब्रिटिश म्यूज़ीयम में देखी है... मैं इससे शादी करूँगी... कल... उसे दुबारा चक्कर गया... आँखें बंद कर लीं। अब पानी सर से ऊंचा हो चुका था।

    “दोशीज़ा-ए-फ़लक मुराक़बे में चली गई”, चीफ़ काहिन ने आहिस्ता से कहा। कमरे में बड़ी मुअद्दबाना ख़ामोशी तारी थी। इस वक़्त पदमा के ज़हन में एक ख़याल कौंदा। एक मौहूम सी उम्मीद... चंद लम्हों बा’द उसने आँखें खोलें और कमज़ोर आवाज़ में कहा।

    “तख़्लिया... तख़्लिया... मैं देबी से राब्ता क़ायम करना चाहती हूँ...”, फ़िरऔन, सौस का बाप, चीफ़ काहिन और दूसरे हवाली-मवाली सब फ़ौरन उठ खड़े हुए।

    पदमा ने दूसरी आकाश-बानी सुनाई।

    “फ़र्ज़ंद-ए-रा’ से शादी से क़ब्ल मुकम्मल तन्हाई सब दरवाज़े खुले रखो... पहरेदार हटा दो...”

    “जो हुक्म बिंत-ए-ताह...”, बड़े काहिन ने सर झुका कर अ’र्ज़ की।

    “कोई अर्ज़ी मख़लूक़, मर्द, औ’रत, चरिंद-परिंद मुझे अपनी सूरत... दिखलाए।”, वो सब मा’ फ़िरऔन-ए-मिस्र फ़िल-फ़ौर ग़ायब हो गए।

    पदमा ने सुब्ह से कुछ खाया था। नज़राने में जितने फल और मिठाईयाँ उसे चढ़ाई गई थीं चुन-चुन कर पहले तो वो साफ़ कीं। मंत्र फूँका, शर्बत गट-गट पी डाला। तब ज़रा हवास बजा हुए। फिर दरीचे से बाहर नज़र डाली। शाम हो चुकी थी। हर-सू मिशअ’लें रौशन थीं... मुग़न्नियों और साज़िंदों का ताइफ़ा बारहदरी की तरफ़ जाता नज़र आया जहाँ ज़ियाफ़त का इंतिज़ाम किया जा रहा था। बड़ी घमा-घमी थी। रफ़्ता-रफ़्ता ख़ामोशी छाई। सारा शाही ख़ानदान, दरबारी और ख़ुद्दाम रंग-महल की सिम्त चले गए। कुछ देर बा’द दरीचे के नीचे दो इब्रानी ग़ुलाम चुपके-चुपके बातें करते गुज़रे।

    “नई शादी की ख़ुशी में जश्न मना रहा है। कल होगी। बुड्ढा बिल्कुल बौला गया है।”

    पदमा खिड़की में से हट गई।

    आधे घंटे बा’द वो इ’बादत-ख़ाने से पंजों के बल बाहर निकली। सुनसान बरामदे के सिरे पर एक दराज़-रेश अ’बा-पोश इब्रानी हल्क़ा-ब-गोश हाथ में मिशअ’ल लिए चुप-चाप खड़ा था। मारे ख़ुशी के पदमा के हाथ पाँव फूल गए। उसने इशारे से इब्रानी को अपनी तरफ़ बुलाया। वो पीर-मर्द मिशअ’ल दीवार के ब्रैकट में अटका कर उसके क़रीब आया।

    पदमा ने उसके कान में कहा..., “चा मैं रब्बिह हासूर की आसमानी ख़वास हूँ।”

    बूढ़े ने उसे ध्यान से देखा।

    वो बहुत मोहतात बुज़ुर्ग था। ख़ामोश रहा।

    पदमा ने कहा, “मेरा नाम मर्यम बिंत-ए-इबराहीम है। ख़ुदा-ए-इबराहीम-ओ-असहक़ की क़सम मेरा नाम...”

    गिरफ़्तार-ए-बला इब्रानी एक दूसरे को फ़ौरन पहचान लेते थे। शक्लन ये लड़की बनी इसराईल में से नहीं लगती थी मगर ख़ुदा-ए-इबराहीम की क़सम खा चुकी थी। बूढ़ा मुतफ़क्किर हुआ। लड़की ने दुबारा कहा।

    “बाबा... रब्बिह... क्या आपका ख़याल है कि मैं देबी हासूर की...”

    “लाहौल वला-क़ुव्वत...”, मर्द-ए-ज़ई’फ़ ने दफ़अ’तन जोश से कहा।

    “मैं मर्यम बिंत-ए-इबराहीम हूँ।”

    “जज़ाकल्लाह!”

    “मुझे किसी तरह इब्रानियों के मुहल्ले तक पहुँचा दीजिए। मीख़ाईल-बिन-हन्नान के घर तक।”

    “मीख़ाईल बिन हन्नान बहुत आम नाम है और कुछ अता-पता बताओ...”

    “वो दरियाई बंदरगाह की चुंगी में मुलाज़िम है। और... अगर अमीर-ज़ादा सौस...”

    “अमीर-ज़ादा सौस इस वक़्त ऐवान-ए-ज़ियाफ़त में फ़िरऔन-ए-मलऊ’न के साथ खाना खा रहा है। तुमको उस बुतपरस्त नौजवान से क्या ग़रज़ है। मर्यम बिंत-ए-इबराहीम...?”

    “कुछ नहीं...”, पदमा मैरी अबराहाम क्रेन ने जल्दी से कहा।

    “मेरे साथ आओ।”

    उसने अपनी अ’बा उतार कर पदमा को उढ़ाई। मिशअ’ल बुझाई। और उसे चोर रास्ते से बाहर निकाल ले गया। तारीक गलियों में से गुज़रते वो एक ख़राब-ओ-ख़स्ता मुहल्ले में पहुँचे। एक शिकस्ता दरवाज़े पर जाकर बूढ़ा आहिस्ता से पुकारा।

    “शालोम अलीख़म या या’क़ूब बिन शमाउ’न...”

    “शालोम। कौन है भाई?”

    “हज़िकील-बिन-ज़करिया।”

    “आ जाओ...”

    वो दोनों अंदर गए। वो जुमे’ की रात थी। एक उ’म्र-रसीदा इब्रानी उसकी बीवी और बच्चे ज़ैतून के तेल से रौशन मुनव्वरा के सामने बैठे राग अ’दतून में धीरे-धीरे एक मुनाजात गा रहे थे। पदमा मैरी ने अ’बा उतारी और खजूर की चटाई पर बैठ गई। पिछले कमरे से मीख़ाईल-बिन-हन्नान निकल कर आया। हज़िकील-बिन-ज़करिया ने उसके कान में कुछ कहा और ख़ामोशी से बाहर चला गया।

    1315 क़.म. की उस शब जुमा’ (महीना और तारीख़ मुझे मा’लूम नहीं) मैरी क्रेन ने उन दुखियारों की दास्तान सुनी और अपनी उन्हें सुनाई। ये लोग उसके माज़ी-ए-बई’द में मौजूद थे। और वो उन लोगों के मुस्तक़बिल-ए-बई’द से आई थी। लेकिन ये ग़ैर-मा’मूली तौर पर ज़हीन-ओ-फ़हीम इंसान जो कुछ उसने बताया बा-आसानी समझ गए। ख़ुसूसन नौजवान मीख़ाईल-बिन-हन्नान जो कुरेद-कुरेद कर उससे सवालात कर रहा था।

    या’क़ूब-बिन-शमाउ’न ने आहिस्ता-आहिस्ता कहना शुरू’ किया।

    “हमारा मूरिस-ए-आ’ला एक उर्मी था। इबराहीम पैग़ंबर। वो अबरालनहर के उस पार कल्दानिया के शहर उर में रहता था। वो अपने ख़ानदान को लेकर वादी-ए-फ़ुरात से निकला और क़हत के दिनों में चरागाहें तलाश करता फिरा। क़नआ’न, मिस्र... फिर क़नआ’न और या’क़ूब-बिन-असहक़-बिन-इबराहीम के बारह लड़के हुए। और यूसुफ़-बिन-या’क़ूब को इसके सौतेले भाईयों ने...”

    “मुझे सारा वाक़िआ’ मा’लूम है”, पदमा ने बे-सब्री से कहा।

    रात तेज़ी से गुज़र रही थी। अगर मीख़ाईल जल्द-अज़-जल्द किसी तरह दरियाई रास्ते से रौकेट तक पहुँचा दे।

    “यूसुफ़ को”, पीरमर्द कहता रहा, “इसी मेमफ़िस के बाज़ार में बेचा गया। मगर ख़ुदा यूसुफ़ के साथ था और...”

    “मुझे मा’लूम है”, पदमा ने कहा, “जोज़फ़! मेरा मतलब है कि यूसुफ़ नबी को मिनिस्टर आफ़ फ़ूड ऐंड एग्रीकल्चर बना दिया गया था... मेरा मतलब है... और उन्होंने अपने क़बीले को क़नआ’न से बुला भेजा।”

    “और बनी इसराईल मिस्र में ख़ूब फूले फले। और मुल्क उनसे भर गया और एक नए बादशाह ने कहा। बनी इसराईल हमसे ज़ियादा ताक़तवर हो गए हैं। चुनाँचे उन्होंने बनी इसराईल पर निगराँ मुक़र्रर किए जो उनसे कड़ी मेहनत करवाते और उन्होंने फ़िरऔन के लिए थोम और रामसीस के शहर ता’मीर किए”, या’क़ूब-बिन-शमाउ’न ने कहा।

    “और बादशाह-ए-मिस्र ने दो इब्रानी दायाओं से, जिनके नाम शफ़ीरा और पवाह थे, कहा, “जब इब्रानियों के यहाँ लड़के पैदा हों उन्हें मार डालो...”, मैरी क्रेन ने बे-इख़्तियार इंजील मुक़द्दस की अगली इबारत दुहराई...

    उसके मेज़बानों ने चौंक कर उसे देखा...

    “तुम क्या कह रही हो... ये कब हुआ...?”

    तब पदमा मैरी ने सोचा। उन्हें बता देना चाहिए कि उनकी नजात का ज़माना दूर नहीं। उसने दरीचे में जाकर देखा। दूर क़स्र-ए-ऐ’न-उश-शम्स में रोशनियाँ झिलमिला रही थीं।

    उसने कहा..., “फिर बादशाह रामसीस दोयम ने... इब्रानियों को हुक्म दिया, अपने सारे नौ-ज़ाईदा लड़कों को दरिया में डुबो दें...”

    “क्या अभी हम पर और बलाएँ नाज़िल होने वाली हैं...?”, ज़ौजा या’क़ूब ने दहल कर पूछा

    “हाँ लेकिन एक बच्चा मोशे बच जाएगा और वो रामसीस दोयम के महल में पलेगा। और वो तुमको मिस्र से निकाल ले जाएगा।”

    इब्रानियों ने मबहूत हो कर उसे देखा..., “लड़की क्या तुम काहिना हो...? ग़ैब का इ’ल्म जानती हो...?”

    “यही समझ लो और सुनते जाओ। यहाँ से निकल कर तुम बनी इसराईल क़नआ’न में सल्तनत क़ायम करोगे। फिर अशूरिया के बादशाह तुमको क़ैद कर के बाबुल ले जाएँगे। तुम तौरात के सहाइफ़ लिखोगे। ईरान का शाह साइरस तुम्हें आज़ाद कर के फ़िलस्तीन भेज देगा। तुम्हारे हाँ दाऊद बादशाह की नस्ल में यसुवा पैदा होगा।”, पदमा ने ग़ैर इरादी तौर पर सलीब का निशान बनाया।

    मुतहय्यर इब्रानी उसे तकते रहे। उसने कहा, “रोमन तुम्हें जिला-वतन करेंगे। तुम सारी दुनिया में मारे-मारे फिरोगे। फिर। आज की रात से पूरे सवा तीन हज़ार साल और विलादत-ए-मसीह से उन्नीस सौ अड़तालीस बरस बा’द तुम इसी क़नआ’न में नई हुकूमत क़ायम करोगे। और जिस तरह तुमको दूसरी क़ौमों ने जिला-वतन किया था। तुम अ’रबों को उनके वतन से निकाल दोगे।”

    “अरब कौन...?”, मीख़ाईल ने दरियाफ़्त किया।

    पदमा ने उकता कर अपने दौर की आ’लमी सियासत से उसे मुख़्तसरन आगाह किया। मीख़ाईल ने जो बड़े ध्यान से उसकी बातें सन रहा था, उससे पूछा। “तुम्हारे साईंस ने इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि तुम रोशनी की रफ़्तार से तेज़-तर परवाज़ कर के अ’र्ज़ी वक़्त की हुदूद से बाहर माज़ी में पहुँच गईं। इसके आगे क्या होगा...?”

    पदमा ने घड़ी देखी।

    “मुझे कुछ मा’लूम नहीं मीख़ाईल। लेकिन मुझे जल्दी से शहर-पनाह के बाहर पहुँचा दो...”

    रात गुज़र चुकी थी। और दरिया-ए-नील पर उजाला फैल रहा था।

    “हमें भी अपने साथ अपने वक़्त में ले चलो।”, इब्रानियों ने उससे इल्तिजा की।

    “नहीं”, पदमा ने दिल कड़ा कर के जवाब दिया। ये मुम्किन नहीं। हम अपने-अपने वक़्त से आगे या पीछे नहीं जा सकते। अपने-अपने दौर की आज़माईशें सहना हमारा मुक़द्दर है। हम तारीख़ को आगे या पीछे नहीं सरका सकते। काश... वो सब होता जो होना चाहिए था। मैं इसराईल की नबीह दब्बू रह की तरह तुमको ये सब बता रही हूँ। दब्बू रह चंद सदीयों बा’द तुम्हारे हाँ पैदा होगी। मगर जिस ज़माने से में आई हूँ, वो अनबया-ए-के बजाए साईंस-दानों का है।”

    इब्रानी कुम्बा आँसू बहा रहा था। सिर्फ़ मीख़ाईल चेहरा सख़्त किए दीवार से लगा खड़ा रहा। पदमा ने तास्सुफ़ से उसे देखा।

    दरवाज़े की कुंडी खिड़की। वो सब दम-ब-ख़ुद रह गए। याक़ूब की बीवी ने पदमा को एक कम्बल में छिपा दिया। मीख़ाईल ने किवाड़ खोला। दहलीज़ पर अमीर-ज़ादा सौस खड़ा था

    सौस ने इब्रानियों से कहा। “चिराग़ बुझा दो...” और मेरी से मुख़ातिब हवा में शाही दावत में शरीक था। जब मेरे एक ख़ादिम ने आकर मेरे कान में चुपके से कहा कि आसमानी दोशीज़ा ग़ायब हो गई। एक पहरेदार ने उसे इब्रानियों के मुहल्ले की तरफ़ देखा है। मैंने ख़ादिम को हुक्म दिया कि अपनी ज़बान बंद रखे और सीधा यहाँ रहा हूँ। तुमने मुझे कल सुब्ह को बताया चुपके से भाग गईं। फ़िरऔन समेत सारा दरबार और फ़ौजी अफ़्सर नशे में धुत पड़े हैं। मगर तुम्हें ढूंढ निकालने में उन्हें देर ना लगेगी और अगर उनको शुबह हो गया कि तुम आशूरी जासूस हो। पत्थर से बांध कर नील में डुबो देंगे। अपने मुतअ’ल्लिक़ सच-सच बता दो शायद मैं तुम्हें बचा सकूँ।”

    पदमा और इब्रानियों ने बेबसी से एक दूसरे की तरफ़ देखा। इब्रानी ज़हनी इर्तिक़ा की ऊंची सत्ह पर पहुँच चुके थे और पदमा के मुतअ’ल्लिक़ समझ गए थे। लेकिन बेचारा सौस... अत्तून और रा’ और हासूर का पुजारी। सहीफ़ा मुतव्वफ़ीन का कातिब। मौत का परस्तार... बई’द-तरीन मुस्तक़बिल के मुतअ’ल्लिक़ उसकी अ’क़्ल में क्या आएगा। पदमा ने मीख़ाईल को देखा।

    मीख़ाईल ने आहिस्ता से कहा, “बता दो हद से हद ये तुमको एक काहिना या साहिरा तसव्वुर करेगा। वर्ना शायद ये भी तुमको फ़िरऔन के हवाले कर दे।”

    पदमा ने चंद अल्फ़ाज़ में सौस को बताया। बड़ी हैरत की बात थी। सौस समझ गया। दो-तीन मिनट ख़ामोश रहा। फिर बोला, “चलो। मैं तुमको तुम्हारी टाइम मशीन तक पहुँचाए देता हूँ।”

    जिस वक़्त वो इब्रानियों को ख़ुदा-हाफ़िज़ कह कर मकान से निकली वो फूट-फूटकर रो रहे थे। वो उन बे-चारों को जिनकी नस्ल में मूसा और ईसा और कार्ल मार्क्स और सिगमंड फ्रायड, और आईंस्टाईन पैदा होने वाले थे, 1315 क़.म. के घटाटोप अंधेरे में बे-यार-ओ-मददगार खड़ा छोड़कर सौस के अस्प-ए-ताज़ी पर सवार हो गई। शायद इसी वज्ह से इंसान को ये सलाहियत नहीं दी गई है कि वो आगे या पीछे देख सके। वर्ना रो-रो कर मर जाए, पदमा ने सोचा।

    जिस वक़्त वो दोनों नख़लिस्तान में पहुँचे, सूरज निकल आया था। रौकेट खजूर के सामने खड़ा दमक रहा था। पदमा की जान में जान आई। लेकिन ऐ’न उसी वक़्त फ़सील-ए-शहर की तरफ़ से गर्द-ओ-ग़ुबार के बादल उठे। फ़िरऔन के शह-सवार नेज़े चमकाते उसके तआ’क़ुब में उड़े चले रहे थे। पदमा लपक कर रौकेट की सीढ़ियाँ चढ़ गई और दरवाज़ा खोला। सौस नीचे खड़ा रह गया।

    वो घबरा कर चिल्ला रहा था, “मुझे साथ ले चलो... वो मुझे मार डालेंगे... तुम्हें फ़रार होने में मैंने मदद की है... वो मुझे क़त्ल कर देंगे।”

    पदमा ने बौखला कर उसका हाथ पकड़ा और उसे अंदर खींच लिया। दरवाज़ा बंद होगा। पदमा ने 1966 का बटन दबाया।

    रौकेट डाक्टर क्रेन के बुन्गे के लॉन पर उतरा। वो दोनों बाहर निकले, सुब्ह के सात बजे थे। अभी चारों तरफ़ सन्नाटा था। पदमा ने जल्दी से रौकेट को ख़ाली मोटर ख़ाने में मुक़फ़्फ़ल किया। गुम-सुम सौस सब्ज़े पर खड़ा हैरत से गिर्द-ओ-पेश को तक रहा था। धारीदार अतुलसी लुंगी, चौड़ा इत्तिलाई कंठा, बालों के चौकोर पट्टे। अ’जब मसख़रा लग रहा था। पदमा का दिल डूब गया। ये बेचारा यहाँ क्या करेगा। वो उसे साथ लेकर बुन्गे में गई। ख़ुश-क़िस्मती से दोनों भाई ईस्टर की ता’तील में कोचीन गए हुए थे। मुलाज़िम सुब्ह दस बजे आता था। वो सौस को भाईयों के कमरे में ले गई। उनका वार्डरोब खोल कर उसके नाप के कपड़े तलाश किए।

    “लिबास तबदील करो। मैं नाश्ता तैयार करती हूँ”, उसने कहा और डाइनिंग रुम में जाकर फ़्रिज में से मक्खन अंडे निकाले। टोस्टर का प्लक लगाया, परकोलेटर उठाया। सुब्ह का टाईम्स आफ़ इंडिया दहलीज़ में पड़ा था। उसकी सुर्ख़ियों पर नज़र डाली और बर्क़ी स्टोव जला कर अंडे उबालने में मशग़ूल हो गई।

    “हाय गुड मॉर्निंग”, उसने चौंक कर सर उठाया। दरवाज़े में सौस खड़ा था। ड्रेसिंग गाऊन में मलबूस, उंगलियों में सुलगता सिगरेट। अमरीकन लहजे में “ब्रेकफास्ट रेडी?” पूछता कुर्सी पर बैठा और टाईम्स आफ़ इंडिया के मुताले’ में मुनहमिक हो गया।

    वाज़ेह हो कि जिस तरह १३१५ क़.म. में पहुँचते ही डाक्टर पदमा क्रेन क़दीम-तरीन क़िब्ती और इब्रानी समझने पढ़ने और बोलने लगी थी, अमीर-ज़ादा सौस १९६६ में दाख़िल हो कर अंग्रेज़ी, मलयालम और हिन्दुस्तानी से फ़िल-फ़ौर वाक़िफ़ हो चुका था।

    आगे का क़िस्सा कोताह करती हूँ। पदमा ने अपने हल्क़े में सौस को एक “मिस्री क़िब्ती दोस्त की हैसियत से मुतआ’रिफ़ किया।

    “मुसव्विर हैं, क्लासिकल मिस्री आर्ट के उस्ताद। मैं इनसे अमरीका में मिली थी।” फिर अल-सैद दक़तूर सौस अलहरमीज़ ने ट्रेडीशनल मिस्री तस्वीरें बनाना शुरू’ कीं। जो धड़ाधड़ बिकीं। बंबई में आपने कुम्बा लाहुल पर एक फ़्लैट किराए पर लिया और बहुत जल्द शहर के मुतमव्विल-ओ-मक़बूल शख़्सियत बन गए। किसी तरकीब से एक गल्फ़ स्टेट का पासपोर्ट हासिल कर लिया। मग़रिबी यूरोप और अमरीका के कई चक्कर लगाए। उमर शरीफ़ की तरह हैंडसम, कामयाब, दौलतमंद, रोमैंटिक, भाई सौस ठाठ कर रहे थे।

    पदमा ब-दस्तूर जुनूबी हिंद की उस लैबारेटरी में मुलाज़िम थी। साल पे साल गुज़रते गए एक रोज़ उसकी माँ ने कहा, “तुम्हारा इजिप्शियन कौप्टिक दोस्त शादी नहीं करेगा किया? सुना है बंबई में हर वक़्त छोकरियों में घिरा रहता है।”

    पदमा ख़ामोश रही। सौस को उससे मुलाक़ात करने की फ़ुर्सत ही नहीं थी। कभी साल दो साल में इत्तिफ़ाक़न मिल जाता। क्रिसमिस और साल-ए-नौ के कार्ड अलबत्ता पाबंदी से भेजता। बात दर-अस्ल ये थी कि पदमा मा’मूली शक्ल सूरत की सीधी सी लड़की थी। और मोसियो सौस हरमीज़ एक ग्लैमरस celebrity थे, जो हसीनाओं के नर्ग़े में शादाँ-ओ-फ़रहाँ थे। दूसरी बात ये कि मर्द चाहे वो 1315 क़.म. का हो, चाहे 1973 का, ज़हनियत उसकी वही रहेगी... बेहूदा...

    ये जून 1975 का ज़िक्र है। पदमा दो हफ़्ते की छुट्टी ले कर अपनी ख़ाला के हाँ बंबई आई हुई थी और बांद्रा में ठहरी थी। एक शाम उसने सौस की ख़ैर-ख़बर लेने के लिए उसे फ़ोन किया।

    “अगर तुम ज़ियादा मसरूफ़ हो तो खाना हम लोगों के साथ आकर खाओ...”

    “तुम ही जाओ...”, सौस की बे-ज़ार सी आवाज़ आई, “मैं इतनी दूर बांद्रा कहाँ आता फिरूँगा...”

    बद-दिमाग़ी की भी कोई हद होनी चाहिए। पदमा ने सोचा। मगर वो सौस को बहर-हाल अपनी ज़िम्मेदारी समझी थी। टैक्सी लेकर कुम्बा लाहुल ओलम्पिया बिल्डिंग पहुँची। वो अपने लक्झरी अपार्टमेंट के ड्राइंगरूम में टेलीविज़न के सामने बैठा Brood कर रहा था। स्क्रीन पर मिस्र-ओ-इसराईल के मुतअ’ल्लिक़ एक मुबाहिसा हो रहा था। पदमा जाकर एक सोफ़े पर टिक गई। सौस उसकी तरफ़ मुतवज्जेह हुआ। फिर दफ़अ’तन टेलीविज़न बंद कर दिया। और बोला, “मैं मिस्र जा कर लड़ना चाहता हूँ...”

    “यौम-ए-किपुर वार तो काफ़ी पुरानी बात हो चुकी...”, पदमा ने आहिस्ता से कहा।

    “रमज़ान वार...”, सौस ने गरज कर तसहीह की।

    “ओ.के. रमज़ानदार...”

    “मैं फ़ौज में भर्ती हो जाऊँगा...”

    “इसके लिए ग़ालिबन अब तुम्हारी उ’म्र नहीं है...”

    “शट अप?”, उसने स्काच व्हिस्की का दूसरा गिलास भरा।

    “सौस तुम शराब बहुत पीने लगे हो”, पदमा ने नर्मी से कहा।

    सौस ने झुँझला कर जवाब दिया, “मुझसे बीवियों की तरफ़ बात मत करो।”

    “आई बेग योर पार्डन”, अब पदमा को वाक़ई’ ग़ुस्सा गया।

    “सौरी... पदमा... आई ऐम सौरी”, सौस ने धीरे से कहा।

    वो बहुत आज़ुर्दा-नज़र रहा था।

    “सौस... हनी... आख़िर बात किया है...?”, पदमा ने दरियाफ़्त किया।

    “बताऊँ...?”, उसने रुक कर कहा, “बात ये है कि पदमा कि मुझे अपना वक़्त याद रहा है। मैं अपने वक़्त में वापिस जाना चाहता हूँ।”

    “अपने वक़्त में...?”, पदमा ने हैरत से दुहराया, “ये ज़माना छोड़कर?”

    “ये ज़माना...? इसमें कौन से सुर्ख़ाब के पर लगे हैं...?”, उसने तल्ख़ी से कहा और फिर टेलीविज़न खोला... न्यूज़ रील में दुनिया-भर में बपा जंगों और नस्ली और मज़हबी फसादों के मनाज़िर दिखाए जा रहे थे।

    “बताओ मुझसे सवा तीन हज़ार साल बा’द तुम कितनी मुतमद्दिम हो...? हम बनी इसराईल पर ज़ुल्म ढाते थे और अशूरिया से लड़ते थे। तुम सब एक दूसरे के साथ बे-इंतिहा प्यार मुहब्बत से रहते हो। हमारे फ़राइना सितम पेशा थे। तुम्हारे हुक्मराँ फ़रिश्ते हैं। हम मौत से डरते थे। तुम मौत के ख़ौफ़ से आज़ाद हो चुके हो। तुम आलीशान मक़बरे नहीं बनाते, मुर्दा-परस्ती नहीं करते, नौहे नहीं लिखते, शे’र-ओ-शाइ’री भी तर्क कर चुके हो।

    “तुम्हारे मज़ाहिब, फ़लसफ़े, अख़्लाक़ियात, नफ़्सियात...”, व्हिस्की का गिलास मेज़ पर पटख़ कर ज़ोर से हँसा।

    “तुम्हारी देव मालाएं, नज़रिया-ए-तस्लीस, रूहानियत, ये, वो, सब ऐ’न साएंटिफ़िक हैं। तुम्हारी जंगें ह्यूमनिज़्म पर मबनी हैं। तुम्हारा न्यूक्लियर बम भी ख़ालिस इंसान दोस्ती है... है ना...? तुम्हारी रोशनी की रफ़्तार वाक़ई’ तेज़ है...?”

    “तुम थोड़ी देर के लिए ख़ुद को Out of Time महसूस कर रहे हो और कोई बात नहीं। चलो पिक्चर्ज हो आएँ।”

    “ओह डू शट उप। ऐंड लीव मी अलोन।”

    “ओ.के.”, वो उठ खड़ी हुई।

    “गुड नाइट सौस...”, वो दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी।

    “पदमा...”, सौस ने आवाज़ दी..., “पदमा आई ऐम सौरी...”

    “ठीक है सौस...”

    “पदमा यहाँ आओ। बैठ जाओ। सुनो। बात ये है कि मुझे अपने माँ बाप और बहनें याद रही हैं। मैं अपने घर जाना चाहता हूँ। तुम्हारा वो रौकेट वो अभी तुम्हारे मोटर ख़ाने में मुक़फ़्फ़ल पड़ा है ना...?”

    “है तो सही। मैं उसके मुतअ’ल्लिक़ सोचना भी नहीं चाहती। डर लगता है।”

    “मुझे उसमें वापिस पहुँचा आओ। मैंने काफ़ी मुस्तक़बिल देख लिया।”

    “तुम ज़्यादती कर रहे हो। हम इतने बुरे तो नहीं। ये तुम्हारा वक़्ती मूड है...”

    “मुम्किन है। मगर अस्लियत ये है कि मैं होम सक हूँ...”

    “टाईम सिक...”, पदमा ने तसहीह की।

    “अच्छा जो तुम्हारी मर्ज़ी। लेकिन याद रखो। ये रौकेट रोशनी की रफ़्तार से आगे सिर्फ़ चार मर्तबा सफ़र कर सकता है। तुमको मेमफ़िस में छोड़कर जब मैं इस दफ़ा वापिस आऊँगी उसके बा’द तुम दुबारा यहाँ सकोगे।”

    “मंज़ूर!”, सौस ने कहा।

    सन 1306 क़.म. में झील के किनारे चरवाहा उसी तरह बकरियाँ चरा रहा था। नौ बरस में वो जवान हो चुका था। पदमा और सौस को रौकेट की सीढ़ियाँ उतरते देखकर फ़ौरन सज्दे में गिर गया। सौस ने 1975 से रवाना होते वक़्त अपने पुराने कपड़े और ज़ेवरात पहन लिए थे। और वही पुराना सौस लग रहा था।

    “मैं शहर नहीं जाऊँगी। तुम्हारा बादशाह फिर पकड़ेगा।”

    “जहाँपनाह क़स्र-उश-शम्स में तशरीफ़ रखते हैं या थीब्ज़ गए हुए हैं...?”, सौस ने चरवाहे से दरियाफ़्त किया।

    “पिछले फ़र्ज़ंद-ए-रा’ रहलत फ़र्मा चुके...”, उसने एहराम की सिम्त इशारा किया, जहाँ एक नया मक़बरा ता’मीर किया जा रहा था। रामसीस दुवुम आजकल थीब्ज़ में रौनक-अफ़रोज़ हैं।”

    “पदमा चलो तुम्हें थीब्ज़ दिखला लाऊँ। नया बादशाह तबअ’न बे-रहम है, लेकिन मेरे साथ का खेला हुआ है तुमको कोई गज़ंद पहुँचाएगा। और अपनी मलिका पर आ’शिक़ है। दूसरी शादी की भी नहीं सूझेगी। चलो कल परसों वापिस जाना।”

    वो बजरे पर सवार हो कर थीब्ज़ रवाना हुए। सौस अपने वक़्त में वापिस आकर वाक़ई’ बेहद ख़ुश और मुतमइन नज़र रहा था। दरिया पर दूर से फ़लक-बोस महलात नज़र आए।

    “ये असवान डैम में डूब चुके हैं”, सौस ने पदमा को याद दिलाया।

    “बहुत से बचा भी लिए गए हैं”, पदमा ने फ़ौरन जवाब दिया। मलिका हातीशपस्त, तोतमस सिवुम, सेती अव्वल, होरदता और मैनताह के अज़ीम-उल-जुस्सा मुजस्समों के नीचे से गुज़रता हुआ बुत-नुमा बजरा समर पैलेस की सीढ़ियों से जा लगा। सौस के वालिदैन बहनें, और शाही ख़ानदान के चंद अफ़राद सामने वसीअ’ दालान में कुर्सियों पर नीम-दराज़ ख़ुश-गप्पियों में मसरूफ़ थे। वो मौसम-ए-गर्मा की एक सुस्त-ख़िराम, काहिल सह-पहर थी और धूप दरिया-ए-नील पर से उतरती जा रही थी। सौस ने उन सबसे कहा कि देबी हासूर का हुक्म नहीं किसी को बताए कि दोशीज़ा-ए-फ़लक के साथ इतने अ’र्से कहाँ ग़ायब रहा।

    चौथे दिन वो थीब्ज़ से रवाना हुई... सौस उसे नख़लिस्तान तक पहुँचाने आया। झील के किनारे उन्होंने चारों तरफ़ नज़रें दौड़ाईं, पदमा सकते में रह गई। ख़जूरों के सामने रौकेट मौजूद था। पदमा की टाँगें लरज़ने लगीं। ज़मीन पाँव तले से निकल गई और वो वहीं रेत पर बैठ गई। सौस सरासीमगी से नख़लिस्तान के गिर्दा-गिर्द देख आया, चरवाहों को आवाज़ दी। सपाट रेतीले मैदान में रौकेट का कहीं दूर-दूर पता था। सौस पदमा के पास आया वो रेत पर सर-निगूँ बैठी थी। सौस की नज़र क़रीब के एक पत्थर पर पड़ी। उसके नीचे पेपाइरस का एक ज़र्द टुकड़ा दबा हुआ था। सौस ने उसे खींच लिया। पढ़ा और पदमा को दे दिया। इब्रानी में लिखा था

    मर्यम बिंत इबराहीम। शालोम अलीख़म। कल दोपहर पिछले फ़िरऔन अलैहि-अल-लान के मक़बरे के लिए पत्थर ढोते हुए मुझे इतने कूड़े लगाए गए कि मैं जाँ-ब-लब हो कर पानी पीने के लिए घिसटता इस झील पर आया और यहाँ तुम्हारा रौकेट फ़रिश्ता-ए-रहमत के मानिंद जगमगाता देखा। नौ बरस क़ब्ल उस रात तुमने मुझे जो कुछ बताया था सब रत्ती-रत्ती मुझे याद है। ज़ेर-ए-ता’मीर मक़बरे के मिस्री इंजीनियर तीन चार दिन से आपस में तज़किरा कर रहे हैं कि दोशीज़ा-ए-फ़लक अमीर-ज़ादा सौस हरमीज़ को वापिस ले आई है और थीब्ज़ गई हुई है। इससे मुझे ख़याल होता है कि अभी तुम शायद चंद रोज़ यहाँ क़याम करोगी। तुमने ये भी कहा था कि रामसीस दोयम के अ’हद में मूसा अलैहि-सलाम पैदा होंगे और क्या मा’लूम उस वक़्त जब कि मैं तुमको ये सुतूर लिख रहा हूँ वो हमारे मुहल्ले के किसी घराने में पैदा हो चुके हों लेकिन उनके बड़े होने और हमारे एकज़ोड्स में अभी बहुत देर है, क्या जानिए जाता हूँ। इब्रानी कब होगा और क्या होगा। मैं अब अगर शहर वापिस ग़ुलामों का निगरान-ए-आ’ला जो मेरे ख़ून का प्यासा हो रहा है, मुझे रेत में ज़िंदा दफ़्न कर देगा। लिहाज़ा जान-ए-अ’ज़ीज़ बचाने के लिए तुम्हारे रौकेट पर बैठ कर तुम्हारे वक़्त में जा रहा हूँ। सबसे पहले न्यूयार्क जाऊँगा जिसके बारे में तुमने मुझे उस रात बताया था, उसके बा’द इसराईल, वहाँ सेटल होते ही फ़ौरन जल्द-अज़-जल्द, ख़ुदा-ए-इबराहीम-ओ-असहाक़ की क़सम मैं यहाँ आकर तुमको तुम्हारे वक़्त में ले जाऊँगा। जो आज से मेरा वक़्त है।

    तुम्हारा भाई मीख़ाईल बिन हन्नान-बिन-या’क़ूब (आज से माईकल ऐच. जैकब उर्फ़ माईक)

    पर्चा पदमा के हाथ से रेत पर गिर गया उसकी आँखों तले अँधेरा छाया और चकरा कर गिरने लगी। सौस ने उसे फ़ौरन सँभाला।

    “पदमा उसने लिखा है तुमको लेने वापिस आएगा। घबराओ नहीं मैं उसे बचपन से जानता हूँ। ईमानदार, रास्त-बाज़ लड़का है। याद करो। मैं भी अपनी जान बचाने की ख़ातिर तुम्हारे साथ भाग निकला था। वो ज़रूर वापिस आएगा।”

    “सौस...”, पदमा मैरी ने आहिस्ता से कहा, “1975 से रवाना होते वक़्त मैंने तुमको बताया था ये रौकेट रोशनी की रफ़्तार से आगे सिर्फ़ चार मर्तबा परवाज़ कर सकता है।”

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