अयादत होती जाती है इबादत होती जाती है
मिरे मरने की देखो सब को आदत होती जाती है
मैं सर-ब-सज्दा सकूँ में नहीं सफ़र में हूँ
जबीं पे दाग़ नहीं आबला बना हुआ है
ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचियता का होगा रचना को अगर ठुकराओगे
सुना इक़बाल-ए-इस्याँ ख़ल्वतों में वज्ह-ए-बख़्शिश है
कलीसाओं में ये तर्ज़-ए-इबादत आम है साक़ी